अजामिल की कथा
कहते हैं, भगवन्नाम कैसे भी लिया जाये, मंगलकारी ही होता है। देर-सबेर जापक का कल्याण होता ही है। इसीलिये सन्त तुलसीदास ने कहा है─
तुलसी अपने राम को, रीझ भजो या खीझ।
भूमी फेंके उगेंगे, उल्टे सीधे बीज।।
श्रीमद्भागवत में अजामिल की कथा इसी बात को प्रतिपादित करती है। जो सत्संगी हैं वे इस कथा से अच्छी तरह अवगत होंगे; क्योंकि इस कथा को माहात्म्य के रूप में प्रायः सत्संग की पूर्णता पर कहा जाता है।
तो आइये,
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सुगम ज्ञान संगम के कहानियाँ + पौराणिक स्तम्भ में अजामिल की कथा का रसपान करें, जिसका पठन-श्रवण भी पुण्यदायी माना जाता है।
अजामिल एक श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ था। वह अनेक अलौकिक गुणों से सम्पन्न था। शील, सदाचार, विनम्रता, सत्यता, पवित्रता ─ये सभी गुण उसमें सहज ही विद्यमान थे। उसने शास्त्रों का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया था। गुरुजन एवं अतिथियों की सेवा में वह कभी त्रुटि नहीं करता था। उसकी वाणी मे संयम था। गुणज्ञ होकर भी अहंकाररहित होना बहुत कठिन है, परन्तु उसे तो अहंकार छू भी नहीं पाया था। उसके पिता नित्य यज्ञ किया करते थे। उनके लिये वन से फल-फूल, समिधा, कुश आदि हवन-पूजन की सामग्री अजामिल ही लाता था।
एक दिन अजामिल यज्ञ-सामग्री लेकर वन से लौट रहा था। संयोगवश उसकी दृष्टि एक युवक पर पड़ी जो शृङ्गारचेष्टाओं द्वारा एक वेश्या के साथ आनन्दित हो रहा था। उन दोनों को इस प्रकार उन्मत्त अवस्था में देखकर उसका चित्त आसक्त हो गया। वह मन को बहुत रोकना चाहा, परन्तु असफल रहा। कुसंग के उस दृश्य को देख-देखकर वह आनन्दित होने लगा। वह घर तो आया लेकिन मन उस वेश्या को दे आया। कुसंग ने किसका विनाश नहीं किया?
अजामिल का विवेक कुण्ठित हो गया। वह उस वेश्या के पास जा पहुँचा। अब तो वेश्या की प्रसन्नता ही अजामिल की प्रसन्नता थी। वेश्या को सुख पहुँचाने के लिये अजामिल अपना घर-बार लुटाने में भी संकोच नहीं करता। उस कुलटा की कुचेष्टाओं से प्रभावित होकर वह अपनी विवाहिता पत्नी को भी भूल गया और उसका परित्याग करके उस वेश्या के घर ही रहने लगा। इस तरह वेश्या के पूरे कुटुम्ब के भरण-पोषण का सारा भार अजामिल पर ही आ गया।
कुसंग के परिणामस्वरूप सदाचारी एवं धर्मपालक अजामिल एक कुलटा के कुटुम्ब-पालन के लिये न्याय-अन्याय किसी प्रकार से धन अर्जित करके लाने लगा। बहुत दिनों तक अपवित्र अन्न खाने तथा उस कुलटा का संसर्ग करने से अजामिल की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी।
अब वह धन संचित करने के लिये कभी यात्रियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता; कभी लोगों को जुए में छल से हरा देता; कभी किसी का धन चुरा लेता। दूसरे प्राणियों को सताने में अब उसे तनिक भी हिचक नहीं होती थी। इसी प्रकार पाप कमाते-कमाते अजामिल बूढ़ा हो गया और उस वेश्या से उसकी दस सन्तानें उत्पन्न हुई।
एक दिन अजामिल के घर कुछ महात्मा पधारे। अजामिल बुद्धि कुण्ठित हो चुकी थी अतः उन महात्माओं से उसे कोई सरोकार तो न था। परन्तु पूर्व के संस्कार और आतिथ्य धर्म की पूर्ति के लिये के उसने महात्माओं सत्कार तो किया, परन्तु यह भी कह दिया कि मेरे पास देने के लिये दक्षिणा-वक्षिणा नहीं है। सन्त सदा सबका भला चाहते है, उन्होंने आग्रह किया कि हमें दक्षिणा नहीं चाहिये, बस वह अपने सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण रखें। उनकी प्रसन्नता और आग्रह पर अजामिल ने सबसे छोटे पुत्र का नाम ‘नारायण’ रख दिया। महात्मा गण चले गये।
वृद्ध अजामिल नारायण को बहुत प्यार करता था। वह अधिक समय छोटे बच्चे को खिलाने में ही लगाता था। उसके प्रति उसकी प्रगाढ़ ममता हो गयी थी।
मृत्यु किसको छोड़ती है? अजामिल की मृत्यु का समय आया। हाथों में यमपाश लिये डरावने यमदूत उसे लेने पहुँचे। उन भयंकर यमदूतों को देखकर छोटे पुत्र में आसक्ति होने के कारण उसने उच्च स्वर से अपने प्रिय पुत्र नारायण को पुकारा─ “हे नारायण! हे नारायण!!”
उसके प्राण प्रयाण कर रहे थे, परन्तु ‘नारायण’ नाम का उच्चारण सुनते ही भगवान् विष्णु के पार्षद तत्काल अजामिल के पास पहुँचे और उन्होंने बलपूर्वक अजामिल को उन यमदूतों के पाश से मुक्त कराया।
यमदूतों ने कहा─ “यह भगवान् नारायण को नहीं, अपने छोटे पुत्र को पुकार रहा है।”
विष्णुपार्षदों ने कहा─
“एतेनैव ह्यघोनोऽस्य कृतं स्यादघनिष्कृतम्।
यदा नारायणायेति जगाद चतुरक्षरम्।।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत्।
संकीर्तितमधं पुंसो दहेदेधो यथानलः।।”
(श्रीमद्भा० ६। २। ८, १८)
“जिस समय उसने ‘ना-रा-य-ण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। जैसे जाने-अनजाने में ईन्धन से अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जानबूझकर या अनजाने में भगवान के नाम का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं।
भगवत्कृपा-प्राप्ति के लिये भगवन्नाम एक अमोघ साधन है। पापी दुरात्मा अजामिल ‘नारायण’ नाम के उच्चारण मात्र भगवत्कृपा अनुभव कर कालान्तर में विष्णुलोक प्राप्त किया।
इस कथा को पढ़कर-सुनकर यह न समझा जाये कि पाप करो, भगवान् का नाम जप करने से पाप नाश हो जायेगा। ऐसे लोग और भी पाप के भागीदार बनते जाते हैं।
अजामिल एक सदाचारी व्यक्ति था। उसके कुछ कुसंस्कार होंगे, जो उस वेश्या को देखकर जाग उठे। उस स्थिति को देखकर वह स्वयं पर संयम न रख पाया, परिणामस्वरूप उसका पतन हुआ। परन्तु उसके पूर्व शुभकर्मों के फलस्वरूप अन्त समय में उसके मुख पर नारायण नाम आया। अन्यथा अन्तकाल में मनुष्य के मुख में ईश्वर का नाम नहीं आता। भगवान् श्रीकृष्ण का भगवद्गीगीता में कहा है─
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।।
(भगवद्गीता अध्याय ८ श्लोक ५-६)
“जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सा उसी भाव से भावित रहता है।”
अतः यह कथा हमें यही सीख देती है कि मन के ऊपर कभी विश्वास न करें। जानबूझकर अश्लील फ़िल्में या तस्वीरें न देखें; क्योंकि ये सब कहीं-न-कहीं हमारे चित्त में संस्कार का रूप धारण करती हैं, जो भविष्य में अजामिल की तरह हमें पतन के मार्ग पर ले जायेंगी।