अर्गला स्तोत्र

अर्गला स्तोत्र मार्कण्डेय ऋषि द्वारा कहा गया एक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली स्तोत्र है। श्री जगदम्बा की प्रीति के लिये इसका पाठ किया जाता है।
इस स्तोत्र में⚊
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि। इस आधे पद की बार-बार पुनरावृत्ति है, जिसका अर्थ है, हे देवि!
मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। रूप, यश, विजय भले ना मिले किन्तु काम-क्रोध का यदि नाश हो जाये तो मनुष्य इस धरती पर देव-तुल्य हो जाये।
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॥अथार्गलास्तोत्रम्॥

❑➧ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।।
❍ ॐ अस्य श्री अर्गला स्तोत्र मन्त्रस्य विष्णुर् ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री महालक्ष्मीर् देवता, श्री जगदम्बा प्रीतये सप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।।

।।ॐ नमश्‍चण्डिकायै।।

मार्कण्डेय उवाच
❑➧ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥१॥
❍ ॐ जयन्ती मङ्गला काली
भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री
स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥१॥

❑➧जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥२॥
❍ जय त्वं देवि चामुण्डे
जय भूतार्ति-हारिणि।
जय सर्वगते देवि
कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥२॥

❑➧मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥
❍ मधु-कैटभ-विद्रावि-
विधातृ-वरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥३॥

❑➧महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥
❍ महिषासुर-निर्णाशि
भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥४॥

❑➧रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥
❍ रक्तबीज-वधे देवि
चण्ड-मुण्ड-विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥५॥

❑➧शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥
❍ शुम्भस्यैव निशुम्भस्य
धूम्-राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥६॥

❑➧वन्दिताङ्‌घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥७॥
❍ वन्दि-ताङ्‌घ्रि-युगे देवि
सर्व-सौभाग्य-दायिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥७॥

❑➧अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥८॥
❍ अचिन्त्य-रूप-चरिते
सर्व-शत्रु-विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥८॥

❑➧नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥९॥
❍ नतेभ्यः सर्वदा भक्त्य
चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥९॥

❑➧स्तुवद्‌भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥
❍ स्तुवद्‌भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां
चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥

❑➧चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥
❍ चण्डिके सततं ये त्वा-
मर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥११॥

❑➧देहि सौभाग्य-मारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥
❍ देहि सौभाग्य-मारोग्यं
देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥

❑➧विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥
❍ विधेहि द्विषतां नाशं
विधेहि बल-मुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥

❑➧विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥
❍ विधेहि देवि कल्याणं
विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥

❑➧सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥
❍ सुरा-सुर-शिरो-रत्न-
निघृष्ट-चरणे-ऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥

❑➧विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥
❍ विद्या-वन्तं यशस्वन्तं
लक्ष्मी-वन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥

❑➧प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥
❍ प्रचण्ड-दैत्य-दर्पघ्ने
चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥

❑➧चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥
❍ चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र-
संस्तुते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥

❑➧कृष्णेन संस्तुते देवि शश्‍वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥
❍ कृष्णेन संस्तुते देवि
शश्‍वद्-भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥

❑➧हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥
❍ हिमाचल-सुतानाथ-
संस्तुते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥

❑➧इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥
❍ इन्द्राणी-पति-सद्भाव-
पूजिते परमेश्‍वरि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥

❑➧देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥
❍ देवि प्रचण्ड-दोर्दण्ड-
दैत्य-दर्प-विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥

❑➧देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥
❍ देवि भक्त-जनोद्दाम-
दत्ता-नन्दोदये-ऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि
यशो देहि द्विषो जहि॥२३॥

❑➧पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥
❍ पत्नीं मनोरमां देहि
मनो-वृत्तानु-सारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग-संसार-
सागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥

❑➧इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥२५॥
❍ इदं स्तोत्रं पठित्वा तु
महा-स्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशती-संख्या-
वर-माप्नोति सम्पदाम्॥२५॥

।।इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

हिन्दी अर्थ

❑अर्थ➠ जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा ─ इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके। तुम्हें मेरा नमस्कार है।
[उपरोक्त ग्यारह नामों का अर्थ विस्तार पूर्वक जानें।]

❑अर्थ➠ देवि चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो। सबमें व्याप्त रहनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार हो।।२।।

❑अर्थ➠ मधु और कैटभ को मारनेवाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह-विजय तथा ज्ञान-प्राप्ति रूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।३।।

❑अर्थ➠ महिषासुर का नाश करनेवाली तथा भक्तों को सुख देनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।४।।

❑अर्थ➠ रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।५।।

❑अर्थ➠ शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।६।।

❑अर्थ➠ सबके द्वारा वन्दित युगल चरणोंवाली तथा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।७।।

❑अर्थ➠ देवि! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करनेवाली हो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।८।।

❑अर्थ➠ पापों को दूर करनेवाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।९।।

❑अर्थ➠ रोगों का नाश करनेवाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१०।।

❑अर्थ➠ चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और उनके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।११।।

❑अर्थ➠ मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१२।।

❑अर्थ➠ जो मुझसे द्वेष रखते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१३।।

❑अर्थ➠ देवि! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम सम्पत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१४।।

❑अर्थ➠ अम्बिके! देवता और असुर-दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१५।।

❑अर्थ➠ तुम अपने भक्तजनको विद्वान्, यशस्वी और लक्ष्मीवान् बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और उसके काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१६।।

❑अर्थ➠ प्रचण्ड दैत्यों के दर्प (अहंकार) दलन (नाश) करनेवाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१७।।

❑अर्थ➠ चतुर्मुख ब्रह्माजीके द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि ! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१८।।

❑अर्थ➠ देवि अम्बिके ! भगवान् विष्णु नित्य-निरन्तर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।१९।।

❑अर्थ➠ हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा प्रशंसित होनेवाली परमेश्वरि ! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।२०।।

❑अर्थ➠ शचीपति इन्द्र के द्वारा सद्भावसे पूजित होनेवाली परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।२१।।

❑अर्थ➠ प्रचण्ड भुजदण्डोंवाले दैत्योंका घमण्ड चूर करनेवाली देवि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।२२।।

❑अर्थ➠ देवि अम्बिके! तुम अपने भक्तजनोंको सदा असीम आनन्द प्रदान करती रहती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।।२३।।

❑अर्थ➠ मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार-सागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हो।।२४।।

❑अर्थ➠ जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशतीरूपी रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप-संख्या से मिलनेवाले श्रेष्ठ फलको प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेता है।।२५।।

इस प्रकार देवी अर्गलास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।