अहंकार को अंग (कबीर के दोहे)
अहंकार का वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु सारे संसार के हर मनुष्य को इसने निगल रखा है। छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े व्यक्ति में अहंकार होता है। यह अहंकार ही संसार के सारे दुःखों का मूल है। कबीर साहेब कहते हैं
अहं अगिन हिरदै जरै, गुरु सो चाहे मान।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमार मेहमान।।१।।
जिसके हृदय में अहंकार की अग्नि जल रही है और गुरु से भी सम्मान चाहता है। ऐसे लोगों को कुवासनारूपी यम ने निमन्त्रण दिया है कि आओ, मेरे मेहमान बनो (तुम गुरुभक्त होने योग्य नहीं हो) ।।१।।
(दोहे का भाव)
गुरु से ज्ञान प्राप्त करना हो तो समर्पण का भाव और नम्रता होनी चाहिये। जो अपने अहंकार में जीता है कि मुझे कुछ पता है, वह गुरुभक्त बनने योग्य नहीं है।
जहाँ आपा तहँ आपदा, जहँ संसै तहँ सोग।
कहै कबीर कैसे मिटै, चारों दीरघ रोग।।२।।
जहाँ अहंकार है, वहाँ अनेक प्रकार की विपत्तियाँ हैं। जहाँ संशय अर्थात् अज्ञान है, वही शोक है। ये चारों बहुत बड़े रोग है, कैसे मिटेंगे?।।२।।
(दोहे का भाव)
कबीरजी कहते हैं, अहंकार से विपत्ति आती है और अज्ञान से दुःख आते हैं अर्थात् अहंकार और विपत्ति अज्ञान और दुःख ये चारों दीर्घकालीन रोग हैं, इन्हें कैसे नष्ट किया जाये? इस पर विचार करो।
कबीर गर्ब न कीजिये, रंक न हँसिये कोय।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय ।।३।।
ऐ मनुष्यों! अपने तन-धन, ज्ञान प्रभुतादि का अहंकार करके अन्य दीन-दुखियों की हँसी न करो। अभी तुम्हारी नाव समुद्र के बीच में है, पता नहीं भविष्य में क्या हो?।।३।।
(दोहे का भाव)
प्रायः धन और अहंकार में चूर होकर इन्सान दूसरों की हँसी उड़ाता है, उसे लगता है कि उसका धन और सुख यूँ ही बना रहेगा, इसी अहंकार में जीता है। लेकिन यह भूल जाता है कि समयरूपी समुद्र में उसकी भी नाव बीच में है। कब तूफ़ान आ जाये, पता नहीं?
दीप को झोला पवन है, नर को झोला नारि ।
ज्ञानी झोला गर्व है, कहै कबीर पुकारि।।४।।
कबीर साहेब पुकार के कहते हैं कि दीपक को बुझानेवाला तीव्र वायु है, पुरुष को पतित करनेवाली स्त्री है (इसी प्रकार स्त्री को विनष्ट करनेवाला पुरुष है) और ज्ञानी का विनाश करनेवाला अहंकार है।।४।।
(दोहे का भाव)
इस दोहे का भाव एकदम स्पष्ट है तीव्र हवा दीप को, स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के प्रति वासनामय आकर्षण और अहंकार ज्ञानी का विनाश कर देता है।
मद अभिमान न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय।
जा सिर अहं जु संचरे, पड़े चौरासी जाय।।५।।
कबीर साहेब समझाकर कहते हैं, मद-मान न करो। जिसकी खोपड़ी में अहंकार प्रविष्ट होता है, वह जीव चौरासी लाख योनि के चक्कर में पड़ता है।।५।।
(दोहे का भाव)
कबीरजी का अभिप्राय है कि मनुष्य जन्म ऐसा है कि इसमें पुरुषार्थ करके चौरासी योनियों का फेरा मिटाया जा सकता है। लेकिन जिसके मस्तिष्क में अहंकार रहता है, वह मनुष्य जन्म पाकर भी चौरासी के चक्कर में पड़ जाता है।
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