आत्म अनुभव को अंग
(कबीर के दोहे)
आत्मा कहते हैं अपने आपको। इस प्रसंग में अपने आपके अनुभव की ओर संकेत है।
नर नारी के सुख को, खँसी नहीं पहिचान।
त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहिं जान।।१।।
स्त्री-पुरुष के विषय सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता। वैसे ज्ञानी के स्वरूप स्थिति-सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता।।१।।
ज्ञानी युक्ति जनाइया, को सुनि करे विचार।
सूरदास की इस्तरी, का पर करे सिंगार।।२।।
विवेकियों ने स्वरूप-स्थिति की युक्ति तो जनाई, परन्तु उसको सुनकर इन अविवेकियों में से कौन विचार करे? सूरदास की स्त्री का शृंगार करना इसलिए व्यर्थ है कि सूरदास देखते ही नहीं हैं, फिर शृंगार में कौन मोहे? इसी प्रकार अविवेकी के सामने विवेक की बात कहना व्यर्थ होता है।।२।।
ज्ञानी भूले ज्ञान कथि, निकट रहा जिनरूप।
बाहिर खोजै बापुरे, भीतर वस्तु अनूप।।३।।
पास ही, बल्कि अपने आप ही स्व-स्वरूप को न जानकर वाचिक ज्ञानी लोग ज्ञान कथन करके भूल गये। हृदय में वह विलक्षण चैतन्य पदार्थ विराजमान है, परन्तु ये बेचारे उसे बाहर खोज रहे हैं।।३।।
बूझ सरीखी बात है, कहन सरीखी नाहिं।
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहिं।।४।।
स्व-स्वरूप की बात तो समझने तथा अनुभव करने की है, यह वाद-विवाद का विषय नहीं है। वाद-विवाद करनेवाले जितने वाचिक ज्ञानी देखे जाते हैं, सब संशय में पड़े हैं।।४।।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहिं हर्ष विषाद।
चित्र दीप सम है रहे, तजिकर वाद विवाद ।।५।।
अपने आप स्व-स्वरूप चैतन्य का जब अनुभव हो जाता है, तब हर्ष-शोक नहीं रह जाते। ऐसे पुरुष वाद विवाद त्यागकर चित्र के दीपक की भाँति स्थिर हो जाते हैं।।५।।
ज्ञानी तो निरभय भया, मानै नाहीं संक।
इन्द्रिन केरे बसि पड़ा, भुगते नरक निसंक।।६।।
वाचिक ज्ञानी तो ज्ञान-मद धारण कर निर्भय हो जाता है, वह अपने मन में पाप-पुण्य की शंका नहीं मानता। ऐसे लोग इन्द्रियों के वश में पड़कर जीवन पर्यन्त कुकर्म करते हैं और लोक-परलोक में निःशंक होकर नरक भुगतते हैं।।६।।