ईश्वर माँ की तरह हैं

ईश्वर माँ की तरह हैं

प्रस्तुत लेख स्वामी रामसुखदासजी महाराज के सत्संग का अंश है। साधन सुधा सिन्धु (भक्तियोग) गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तिका में प्रकाशित है। स्वामीजी ने माँ की उपमा देकर ईश्वर पर सब कुछ सौंपकर निश्चिन्त रहने के लिये कहा है। आइये इसका पठन कर इसे आत्मसात करें।

एक सूरदास भगवान् के मन्दिर में गये तो लोगों ने उनसे कहा— “आप कैसे आये?”
वे बोले— “भगवान् का दर्शन करनेके लिये।”
लोगों ने पूछा— “तुम्हारी आँखें तो हैं नहीं, दर्शन किससे करोगे।”
वे बोले— “दर्शनके लिये मेरे नेत्र नहीं हैं तो क्या ठाकुरजी के भी नेत्र नहीं हैं? वे तो मेरे को देख लेंगे न ! वे मेरे को देखकर प्रसन्न हो जायेंगे तो बस, हमारा काम हो गया।”

अब भाइयो ! बहिनो ! ध्यान दो। जैसे हमारे नेत्र न हों तो भी भगवान् के तो नेत्र हैं ही, उनसे वे हमारे को देखते हैं, ऐसे ही सज्जनो ! हमारे को भगवान् का ज्ञान न हो तो क्या भगवान् को भी हमारा ज्ञान नहीं है? हमारी जानकारी में भगवान् नहीं आये तो हम सूरदास हुए तो क्या भगवान् की जानकारी में हम नहीं हैं?

जब हम उनकी जानकारी में हैं तो हमें कभी किसी बात की चिन्ता करनी ही नहीं चाहिये। जैसे, बालक जब तक अपनी माँ की दृष्टि में है, तब तक उसका अनिष्ट कोई कर नहीं सकता और उसके लिये जो कुछ भी चाहिये, उसका सब प्रबन्ध माँ करती है, ऐसे ही जब हम भगवान् की दृष्टि में हैं, उनकी दृष्टि से कभी ओझल होते ही नहीं तो हमारे लिये रक्षा, पालन, पोषण आदि जो कुछ आवश्यक है, वह सब कुछ वे करेंगे।

भगवान् ने गीतामें कहा—अप्राप्ति की प्राप्ति करा देना और प्राप्त की रक्षा करना—ये दोनों काम मैं करता हूँ— ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९। २२) मेरे में चित्त लगने से तू सम्पूर्ण विघ्नों को मेरी कृपा से तर जायगा’— ‘मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (१८। ५८) और ‘अविनाशी शाश्वत पद की प्राप्ति भी मेरी कृपा से हो जायगी’— मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’ (१८। ५६)।

तात्पर्य है कि उनके ज्ञान में हम हैं, हमारे पर उनकी कृपा है, तो वे विघ्नों से भी रक्षा करेंगे और अपनी प्राप्ति भी करा देंगे। परन्तु हमारा चित्त भगवान् में रहना चाहिये। हमारा विश्वास, भरोसा सब भगवान् पर रहना चाहिये। हमारा विश्वास, भरोसा उन पर न रहने पर भी वे तो हम पर कृपा करते ही हैं। हमारा सब प्रबन्ध वे कर ही रहे हैं। हमारा जैसे कल्याण हो, हमारे प्रति उनकी वैसी ही चेष्टा रहती है।

हम सुख और दु:ख को दो रूपों में देखते हैं कि सुख अलग है और दु:ख अलग है। परन्तु भगवान् के यहाँ सुख-दु:ख दोनों अलग-अलग नहीं हैं।

जैसे— “लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके। तद्वदेव महेशस्य नियन्तु- र्गुणदोषयो:” लालन-प्यार में और मार में माँ के दो भाव नहीं होते। एक ही भाव से माँ बच्चे का लालन-प्यार करती है और ताड़ना भी कर देती है अर्थात् प्यार भरे हृदय से प्यार भी करती है और हित भरे हाथ से थप्पड़ भी लगा देती है। तो क्या माँ बालक का अनिष्ट करती है? कभी नहीं।

ऐसे ही भगवान् कभी हमारी मनचाही बात कर दे और कभी हमारी मनचाही न करके थप्पड़ लगा दे, तो भगवान् के ऐसा करने में देखना चाहिये कि वह हमारी माँ है ! माँ ! वह हमारे मन के अनुकूल-प्रतिकूल जो कुछ करे, उसमें हमारा हित ही भरा है, चाहे हम उसे न समझें।

माँ की चेष्टा को बालक समझ सकता है क्या? माँ की चेष्टा को समझने की बालक में ताक़त है क्या? बालक में वह ताक़त है ही नहीं, जो माँ की चेष्टा को समझ सके। बालक को तो माँ की चेष्टा को समझने की ज़रूरत ही नहीं है। वह तो बस, माँ की गोद में पड़ा रहे। ऐसे ही ‘भगवान् क्या करते हैं, कैसे करते हैं…’ इसे समझने की हमें कोई ज़रूरत नहीं है। वे कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, इसको जानने की भी हमें कोई ज़रूरत नहीं है।

क्या बच्चा माँ को जानता है कि माँ कहाँ पैदा हुई है? किसकी बेटी है? किसकी बहन है? किसकी स्त्री है? किसकी देवरानी है? किसकी जेठानी है? किसकी ननद है? किसकी बूआ है? माँ कहाँ रहती है? किससे इसका पालन होता है? माँ क्या करती है? किस समय किस धन्धे में लगी रहती है? आदि बातों को बालक जानता ही नहीं और उसको जानने की ज़रूरत भी नहीं है। ऐसे ही हमारी माँ (भगवान्) कैसी है? कौन है? वह सुन्दर है कि असुन्दर है? वह क्रूर है कि दयालु है? वह ठीक है कि बेठीक है? वह हमारे अनुकूल है कि प्रतिकूल है? आदि-आदि बातों से हमें क्या मतलब! बस, वह हमारी माँ है। वह हमारे लिये जो ठीक होगा, वह आप ही करेगी। हम क्या समझें कि यह ठीक है या बेठीक? अपना ठीक-बेठीक समझना भी क्या हमें आता है? है हमें यह ज्ञान? क्या हमें यह दिखता है?

अरे ! सूरदास को क्या दिखे! हम क्या समझें कि यह ठीक है कि बेठीक; अच्छा है कि मन्दा है। इन बातों को हम क्या समझें और क्यों समझें? हमें इन बातों के समझने की कुछ भी ज़रूरत नहीं है। बस, हम उनके हैं और वे हमारे हैं। वे ही हमारे माता, पिता, भाई, बन्धु, कुटुम्बी आदि सब कुछ हैं और वे ही हमारे धन, सम्पत्ति, वैभव, जमीन, जायदाद आदि सब कुछ हैं—
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥

कोई आपसे पूछे कि तुम्हारी माँ कौन है? ईश्वर! तुम्हारा बाप कौन है? ईश्वर! भाई कौन है? ईश्वर! तुम्हारा साथी कौन है? ईश्वर! तुम्हारा काम करनेवाला कौन है? ईश्वर! हमारे तो सब कुछ वही हैं। सब कुछ माँ ही है। जैसे बच्चे के लिये धोबी भी माँ है, नाई भी माँ है, दाई भी माँ है, धाई भी माँ है, ईश्वर भी माँ है, गुरु भी माँ है, नौकर भी माँ है, मेहतर भी माँ है आदि-आदि। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा सब कुछ काम करनेवाली माँ है। ऐसे ही हमारे सब कुछ भगवान् ही हैं तो हमें किस बातकी चिन्ता!

‘चिन्ता दीनदयाल को मो मन सदा अनन्द’
हमारे मनमें तो सदा आनन्द-ही-आनन्द है, मौज-ही-मौज है! हमारी चिन्ता वे करें, न करें, हमें इस बातकी क्या परवाह है! जैसे माँ बालक की चिन्ता करे, न करे इससे बालक को क्या मतलब! वह आप ही चिन्ता करती है बालककी; क्योंकि बालक उसका अपना है। यह उस पर कोई अहसान है कि वह बालक का पालन करे। अरे, यह तो उसका काम है। वह करे, न करे, इससे बालकको क्या मतलब? बालक को तो इन बातों से कुछ मतलब नहीं। ऐसे ही भगवान् हमारी माँ है बस, वह हमारी माँ है और हमें न कुछ करना है, न जानना है, न पढ़ना है, किन्तु हरदम मस्त रहना है, मस्तीसे खेलते रहना है। माँ की गोदी में खेलता रहे, हँसता रहे, ख़ुश होता रहे। क्यों ख़ुश होता रहे कि इससे माँ ख़ुश होती है, राज़ी होती है अर्थात् हम प्रसन्न रहें तो इससे माँ राज़ी होती है। माँ की राज़ी के लिये हम रहते हैं, खेलते हैं, कूदते हैं और काम-धन्धा भी हम माँ की राज़ी के लिये ही करते हैं। और बातों से हमें कोई मतलब ही नहीं है। हमें तो एक माँ से ही मतलब है।

जैसे माँ के पास जो कुछ होता है, वह सब बालक के पालन के लिये ही होता है। माँ का बल है, बुद्धि है, योग्यता है, विद्या है, शरीर है, कपड़े हैं, घर आदि सब कुछ बच्चे के लिय ही होता है। ऐसे ही भगवान् के पास जो कुछ सामर्थ्य है, शक्ति है, विलक्षणता है वह सब केवल हमारे लिये ही है। अगर हमारे लिये नहीं है तो किसके लिये है? इस वास्ते हमें कभी किसी भी बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। कभी चिन्ता आ भी जाय तो भगवान् से कह दो—”हे नाथ ! देखो ! यह चिन्ता आ गयी।” जैसे बालक को प्यास लगती है, वह ‘बू-बू’ करता है तो माँ पानी पिला देती है। अब किसी भी शब्दकोश में ‘बू’ नाम पानी का नहीं आया है, पर ‘बू’ कहते ही माँ पानी पिला देती है। ऐसे ही हम किसी भी भाषा में कुछ भी कह दें तो उसको माँ (भगवान्) समझ जाती है।

गूँगा तेरी बातको और न समझे कोय।
कै समझै तेरी मावड़ी कै समझै तेरी जोय॥
जैसे गूँगे की भाषा उसकी माँ समझे या लुगाई (स्त्री) समझे। और कौन समझे उसकी भाषा को? परन्तु हमारी भाषा को भगवान् समझें कि नहीं समझें, इससे भी हमें मतलब नहीं रखना है। अपने तो माँ! माँ! करते जाओ, बस। जैसे बालक माँ को किसी विधि से थोड़े ही याद करता है। वह तो बस, माँ! माँ! करता रहता है। ऐसे ही माँ! माँ! करते रहो, बस; और हमें कुछ करना ही नहीं है। माँ प्रिय लगती है, माँका नाम अच्छा लगता है। इस वास्ते प्यार से कहो— “माँ! माँ!! माँ!!!”

हमें एक सज्जन मिले थे। वे कहते थे कि हम कभी माला फेरते हैं तो क्या करते हैं कि जैसे जीमने (भोजन करने) में आनन्द आता है तो सबड़का लेते हैं। ऐसे ही माला फेरते हैं तो सबड़का लेते हैं।

[ तरल पदार्थ—खीर, कढ़ी, दाल आदिको चम्मचकी भी सहायता लिये बिना केवल अँगुलियोंको एक साथ सटाकर उनसे पीनेकी क्रियाको राजस्थानी भाषामें ‘सबोड़ना’ कहते हैं। ]

अब भजन की क्या विधि है ! अपनेको सबड़का लेना है, बस! मौज से नाम उच्चारण करें, कीर्तन करें। कुछ भी करे तो मस्त होकर करे। क्या होगा ? कैसे होगा?’

इन बातोंसे अपना कोई मतलब ही नहीं है। इन बातोंसे मतलब माँको है और इन बातोंकी माँको ही बड़ी चिन्ता होती है। जैसे माता यशोदा और माता कौसल्याको चिन्ता होती है कि मेरे लालाका ब्याह कब होगा? पर लाला तो समझता ही नहीं कि ब्याह क्या होता है, क्या नहीं होता है। वह तो अपनी मस्ती में खेलता ही रहता है।

ऐसे ही हमारी माँ को चिन्ता होती है कि बच्चे का कैसे होगा, क्या होगा? पर हमें तो इससे कोई मतलब नहीं है और इसको जानने की ज़रूरत भी नहीं है। माँ जाने, माँ का काम जाने! अपने तो आनन्द-ही-आनन्द में रहना है और माँ की गोद में रहना है। हमारे में और बालक में फ़र्क इतना ही है कि हम रोते नहीं। बालक तो भोलेपन से मूर्खता से रोता है। पर हमारी तो माँ है, हम रोवें क्यों? हम तो केवल हँसते रहें। मस्ती से माँ की गोदी में पड़े रहें। कैसी मौज की बात है। कितने आनन्दकी बात है! 

“तू जाने तेरा काम जाने।”— ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाओ, निर्भय हो जाओ, नि:शोक हो जाओ और नि:शंक हो जाओ। हमें तो आनन्द-ही-आनन्द में रहना है, हरदम मस्ती में रहना है। अपना तो कुछ काम है ही नहीं, सिवाय मस्ती के, सिवाय आनन्द के! हमारी ज़िम्मेदारी तो एक ही है कि हरदम मस्त रहना, आनन्द में रहना।

माँ! माँ! नाम लेना अच्छा लगता है। माँ! माँ! ऐसा कहना हमें प्यारा लगता है, इस वास्ते लेते हैं। राम! राम! नाम मीठा लगता है, इस वास्ते लेते हैं, इसमें कोई विधि थोड़ी है कि इतना नाम लें। इतना-उतना क्या! हम अपनी मर्जी से माँ-माँ करते रहें। किस तरह करना है? कितना करना है? कैसा भजन किया? कितना भजन किया? इससे हमें क्या मतलब? हमें माँ का नाम प्यारा लगता है, इस वास्ते ख़ुशी से, प्रसन्नता से लेते हैं। बस, अपने तो मौज हो रही है। आनन्द हो रहा है! ख़ुशी आ रही है ! प्रसन्नता हो रही है।

मुख राम कृष्ण राम कृष्ण कीजिये रे!!
सीताराम ने भजन लावो लीजिये रे!!
राम राम राम राम राम

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