कनकधारा स्तोत्र हिन्दी अर्थ

कनकधारा स्तोत्र हिन्दी अर्थ

❀ श्री कनकधारास्तोत्रम् ❀
(❑➧मूलश्लोक ❑अर्थ➠सहित)

❑➧अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवताया।।१।।
❑अर्थ➠ जैसे भ्रमरी अधखिले पुष्पों से अलंकृत तमाल-तरु (पत्तों के पेड़) का आश्रय लेती है, उसी प्रकार श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंग, जिनमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, ऐसी सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का कटाक्ष मेरे लिए मंगलदायी हो।।१।।

❑➧मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागर सम्भवायाः।।२।।
❑अर्थ➠ जैसे भ्रमरी कमल दल पर मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरशत्रु (श्रीहरि) के मुखारविन्द की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती हैं और लज्जा के कारण लौट आती हैं। वह समुद्रकन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन सम्पत्ति प्रदान करे।।२।।

❑➧विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्ष-
मानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध-
मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः।।३।।
❑अर्थ➠ जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ हैं। श्रीहरि को भी अत्यधिक आनन्द प्रदान करनेवाली हैं तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती हैं, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए ही, परन्तु मुझ पर थोड़ी-सी अवश्य पड़े।।३।।

❑➧आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द-
मानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः।।४।।
❑अर्थ➠ शेषशायी भगवान् विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले हों, जिन आखों की पु‍तली तथा बरौनियाँ प्रेम के वशीभूत होकर अधखुले हैं, किन्तु निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखनेवाले आनन्दकन्द श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।४।।

❑➧बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः।।
❑अर्थ➠ जो भगवान् मधुसूदन के कौस्तुभमणि से सुशोभित वक्षस्थल में इन्द्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती हैं तथा उनके मन में भी प्रेम का संचार करनेवाली हैं, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।।५।।

❑➧कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारे-
र्धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-
र्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः।।६।।
❑अर्थ➠ जैसे बादलों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्यामसुन्दर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती हैं, जिन्होंने अपने आविर्भाव (जन्म) से भृगुवंश को आनन्दित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी हैं, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मेरा कल्याण करे।।६।।

❑➧प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्
माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः।।७।।
❑अर्थ➠ समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि (अधखिले नेत्र), जिनके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान् मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।।७।।

❑➧दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा-
मस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः।।८।।
❑अर्थ➠ भगवान् नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ, दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित होकर, दुष्कर्मरूपी धूप (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) को चिरकाल के लिए दूर हटाकर, विषादरूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीनरूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।।८।। 

❑➧इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र-
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः।।९।।
❑अर्थ➠ विशिष्ट बुद्धिवाले मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर जिस दयादृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कान्तिमयी दयादृष्टि मुझे मनोवाञ्छित पुष्टि प्रदान करे।।९।।

❑➧गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति
शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै।।१०।।
❑अर्थ➠ जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती हैं, पालनलीला के समय गरुड़ध्वज (श्रीहरि) की पत्नी (वैष्णवी शक्ति) तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती हैं, उन त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान् नारायण की नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।१०।।

❑➧श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै।।११।।
❑अर्थ➠ हे माते! शुभ कर्मों का फल देनेवाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिन्धुरूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करनेवाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टिरूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।११।।

❑➧नमोऽस्तु नालीकनिभान‍नायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै।।१२।।
❑अर्थ➠ कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिन्धु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चन्द्रमा और सुधा (अमृत) की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान् नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।।१२।।

❑➧सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये।।१३।।
❑अर्थ➠ कमल के समान नेत्रोंवाली आदरणीय माते! आपके चरणों में किए गए प्रणाम सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्द देनेवाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं। मुझे आपकी चरण वन्दना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।।१३।।

❑➧यत्कटाक्षसमुपासना विधि:
सेवकस्य सकलार्थसम्पद:।
सन्तनोति वचनाङ्गमानसै-
स्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।१४।।
❑अर्थ➠ जिनकी कृपा कटाक्ष के लिए की गयी उपासना उपासक के लिए सम्पूर्ण मनोरथों और सम्पत्तियों का विस्तार करती है, ऐसे श्रीहरि की हृदयेश्वरी आप लक्ष्मीदेवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।।१४।। 

❑➧सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे। 
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।१५।।
❑अर्थ➠ हे भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करनेवाली हो, तुम्हारे हाथों में नीलकमल सुशोभित है। तुम अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र, गन्ध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झाँकी बहुत ही मनोरम्य है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हों।।१५।। 

❑➧दिग्घस्तिभि: कनककुम्भमुखावसृष्ट
स्वर्वाहिनी विमलचारुजलप्लुताङ्गीम्। 
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष-
लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।१६।।
❑अर्थ➠ दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाशगंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक (स्नान) सम्पन्न होता है, सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान् विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ।।१६।।

❑➧कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं
करुणापूरतरङ्गि तैरपाङ्गै:।
अवलोकय माम किञ्चनानां
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः।।१७।।
❑अर्थ➠ कमलनयन केशव की कमनीय कामिनी कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतः तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह, तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।।१७।। 

❑➧स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्। 
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो
भवन्ति ते भुवि बुधभावितशया:।।१८।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य इस स्तु‍ति द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा, त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान् गुणवान और अत्यन्त सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।१८।।

।।इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।