क्या फ़र्क़ पड़ता है
किसी एक के सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा। सारी दुनिया बेईमान है। बाप-बेटा, नेता-अभिनेता, पुलिस-वकील-जज सब चोर हो गये हैं, किसी पर भरोसा करने जैसा नहीं है। लगभग हर इन्सान की यही सोच है।
एक के सुधर जाने से समाज को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, यह बात कुछ हद तक सच हो सकती है। लेकिन सुधरने की शुरूआत ख़ुद से हो तो बहुत फ़़र्क़ पड़ता है।
इतना फ़र्क़ पड़ता है कि तुम्हारे कान पक जायेंगे कि तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन आपका जवाब होगा फ़र्क़ पड़ता है। क्योंकि उस अच्छाई की शुरूआत आपसे होगी। जब भी नींव का पत्थर मज़बूत होता है तो इमारत भी मज़बूत बनती है, मगर अफ़सोस है कि नींव का पत्थर कोई बनना नहीं चाहता। अगर आप यह वीडियो देख रहे हैं, फिर आप मालिक, नेता, शिक्षक, पुलिस, वकील, जज जो भी हों, तो बस नींव का पत्थर बनें। तो आप भी कहेंगे फ़र्क़ पड़ता है।
यह मत सोचो कि गगनचुम्बी इमारत की आख़िरी मंज़िल की आख़िरी ईंट मैं बनूँ। नहीं, इसी सोच के कारण
बेटा बाप से अपने अधिकार के लिये लड़ता है
बाप की वसीयत पाने के लिये भाई भाई से झगड़ता है
यदि कोई अच्छा इन्सान यह सब करने से डरता है
तो लोग कहेंगे, तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
मालिक अपने नौकर को गुलाम समझता है
पैरों की जूती समझकर व्यवहार करता है
अगर कोई मालिक नौकर से प्यार करता है
उसके दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझता है
तो लोग कहेंगे, आपके सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
अच्छी फ़िल्में बनाकर भी फ़िल्म निर्माता डरता है
अगर न चली, इस डर से अश्लीलता भरता है
कमाई न हुई तो बरबादी के डर से डरता है
यदि एक भी फ़िल्म-निर्देशक अच्छा काम करता है
तो लोग कहेंगे, एक के सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
टी आर पी की ख़ातिर मीडिया बिक चुकी है
झूठ को सच कहने की आदी बन चुकी है
शैतानियत की सारी हद पार कर चुकी है
अगर कोई सच कहने की हिम्मत रखता है
तो लोग कहेंगे, तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
अपने देश की ख़ातिर एक फ़ौजी लड़ता है
उसी देश का शोषण कर हर नेता झगड़ता है
यदि एक भी नेता सच्चाई से चलता है
जनता की ख़ातिर अपने दिन-रात एक करता है
तो लोग कहेंगे, एक के सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन एक सुधरने से ही बहुत फ़र्क़ पड़ता है।
बड़ी मेहनत से सरकार कर संग्रह करती है
जनता को जागरूक करके कर भरने को कहती है
यदि एक भी नागरिक ईमानदारी से कर भरता है
तो लोग कहेंगे, एक के सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
रिश्वत लेना आज का चलन बन चुका है
इन्सान के भीतर का ईमान मर चुका है
रग-रग में बेईमानी का ख़ून भर चुका
अगर कोई ईमानदार रिश्वत लेने से डरता है
तो लोग कहेंगे, तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
एक सीधा-साधा इन्सान, पुलिसवालों से डरता है
पुलिसवाला ही समाज का, भक्षक क्यों बनता है
पुलिसवाला यदि घर पर मिलने को भी आता है
साधारण इन्सान बड़ी सोच में पड़ जाता है
क्यों घर आया है, ये ख़ाकी वर्दीवाला
डरता है उससे, जो है रक्षा करनेवाला
यदि एक भी पुलिसवाला, समाज का रक्षक बनता है
तो सच में प्रश्न उठता है, कि एक के सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?
लेकिन हक़ीक़त यही है कि बहुत फ़र्क़ पड़ता है।
आज नामी से नामी वकील का वजूद मर चुका है
न्यायालय में बैठा न्यायधीश भी बिक चुका है
पैसों पे न्याय बिकना, व्यवसाय बन चुका है
अगर कोई सच्चा अन्याय करने से डरता है
तो लोग कहेंगे, तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
कमाने के चक्कर में जो डॉक्टर बनते हैं
रोगों के बहाने वे लोगों को ठगते हैं
इस धरती पे हम जिनको, भगवान तक कहते हैं
अगर कोई सच में परोपकार करता है
तो लोग कहेंगे, सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
आज बच्चों को पढ़ाना, व्यवसाय बन चुका है
ग़रीबी का मारा हुआ, असहाय बन चुका है
संस्कार नहीं मिलता, स्कूल प्राइवेट हो सरकारी
पग़ार की ख़ातिर, शिक्षक निभाते हैं ज़िम्मेदारी
यदि कोई अध्यापक बच्चे में संस्कार भरता है
तो लोग कहेंगे, आपके सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है।
औरों को हराने के लिये जो पुरुषार्थ करता है
जीत को पाने के लिये अपनी हार से डरता है
न जाने जीत ख़ातिर कितने विश्वासघात करता है
अगर कोई नेकदिल अपनी मेहनत पर विश्वास करता है
तो लोग कहेंगे, तेरे सुधर जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन फ़र्क़ पड़ता है। फ़र्क़ पड़ता है और पड़ता है।
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