गीता माहात्म्य

गीता माहात्म्य

श्रीमद्भगवद्गीता के इस माहात्म्य का उल्लेख श्रीवाराहपुराण के अन्तर्गत है। धरतीमाता के पूछने पर भगवान् श्रीहरि ने गीता के यह माहात्म्य कहा है, जिसे श्रीसूतजी बता रहे हैं। जो गीताप्रेमी हैं, उन्हें यह माहात्म्य याद कर लेनी चाहिये, अन्यथा कम-से-कम पढ़ने का अभ्यास तो अवश्य कर लेना चाहिये; क्योंकि गीता पठन के बाद इस माहात्म्य के पठन से गीतापाठ फलीभूत माना जाता है।

[ प्रस्तुत माहात्म्य में मूल ❑➧ श्लोक के नीचे लघु ❍ शब्द दर्शाये गये हैं, जो अर्थ की दृष्टि से नहीं, प्रत्युत उच्चारण की दृष्टि से शब्दों के छोटे रूप हैं, जिसकी सहायता से श्लोक सरलता से बोला जा सकता है। ध्यान दें ─ यह शब्दों का सन्धि-विच्छेदन नहीं है। ]

❑➧धरोवाच
भगवन्परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी।
प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो।।१।।
❍ भगवन्-परमेशान
भक्ति-रव्यभि-चारिणी।
प्रारब्धम् भुज्य-मानस्य
कथम् भवति हे प्रभो।।१।।
❑अर्थ➠ श्री पृथ्वी देवी ने पूछा ─ हे भगवन्! हे परमेश्वर! हे प्रभो! प्रारब्ध कर्म को भोगते हुए मनुष्य को एकनिष्ठ भक्ति कैसे प्राप्त होती है? (१)

❑➧श्रीविष्णुरुवाच
प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरत: सदा।
स मुक्त: स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते।।२।।
❍ प्रारब्धम् भुज्य-मानो हि
गीता-भ्यास-रत: सदा।
स मुक्त: स सुखी लोके
कर्मणा नोप-लिप्यते।।२।।
❑अर्थ➠ श्री विष्णु भगवान बोले ─ प्रारब्ध को भोगता हुआ जो मनुष्य सदा श्री गीता के अभ्यास में आसक्त हो, वही इस लोक में मुक्त एवं सुखी होता है तथा कर्म में लेपायमान नहीं होता। (२)

❑➧महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत्।
क्वचित्स्पर्शं न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्बुवत्।।३।।
❍ महा-पापादि-पापानि
गीता-ध्यानम् करोति चेत्।
क्वचित्-स्पर्शम् न कुर्वन्ति
नलिनी-दल-मम्बुवत्।।३।।
❑अर्थ➠ जिस प्रकार कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं करता उसी प्रकार जो मनुष्य श्री गीता का ध्यान करता है उसे महापापादि पाप कभी स्पर्श नहीं करते। (३)

❑➧गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठ: प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र वै।।४।।
❍ गीतायाः पुस्तकम् यत्र
यत्र पाठ: प्रवर्तते।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि
प्रयागा-दीनि तत्र वै।।४।।
❑अर्थ➠ जहाँ श्री गीता की पुस्तक होती है और जहाँ श्री गीता का पाठ होता है वहाँ प्रयागादि सर्व तीर्थ निवास करते हैं। (४)

❑➧सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिन: पन्नगाश्च ये।
गोपालबालकृष्णोऽपि नारद ध्रुव पार्षदैः।
सहायो जायते शीघ्रं यत्र गीता प्रवर्तते।।५।।
❍ सर्वे देवाश्च ऋषयो
योगिन: पन्नगाश्च ये।
गोपाल-बाल-कृष्णोऽपि
नारद ध्रुव पार्षदैः।
सहायो जायते शीघ्रम्
यत्र गीता प्रवर्तते।।५।।
❑अर्थ➠ जहाँ श्री गीता प्रवर्तमान (प्रभावशील) है, वहाँ सर्व देवों, ऋषियों, योगियों, नागों और गोपालबाल श्रीकृष्ण भी नारद, ध्रुव और सर्व पार्षदों सहित जल्दी ही सहायक होते हैं। (५)

❑➧यत्र गीताविचारश्च पठन पाठनं श्रुतम्।
तत्राहं निश्चितं पृथ्वी निवासामि सदैव हि।।६।।
❍ यत्र गीता-विचारश्च
पठन पाठनम् श्रुतम्।
तत्राहम् निश्चितम् पृथ्वी
निवासामि सदैव हि।।६।।
❑अर्थ➠ जहाँ श्री गीता का विचार, पठन, पाठन एवं श्रवण होता है, हे पृथ्वी! मैं वहाँ अवश्य निवास करता हूँ। (६)

❑➧गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्।।७।।
❍ गीता-श्रयेऽहम् तिष्ठामि
गीता मे चोत्तमम् गृहम्।
गीता-ज्ञान-मुपाश्रित्य
त्रींल्-लोकान्-पालयाम्यहम्।।७।।
❑अर्थ➠ मैं श्री गीता के आश्रय में रहता हूँ, श्री गीता मेरा उत्तम घर है और श्री गीता के ज्ञान का आश्रय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ। (७)

❑➧गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः।
अर्धमात्राक्षरा नित्या स्वनिर्वाच्यपदात्मिका।।८।।
❍ गीता मे परमा विद्या
ब्रह्म-रूपा न संशयः।
अर्ध-मात्रा-क्षरा नित्या
स्व-निर्वाच्य-पदात्मिका।।८।।
❑अर्थ➠ श्री गीता अति अवर्णनीय पदोंवाली, अविनाशी, अर्धमात्रा तथा अक्षर स्वरूप, नित्य, ब्रह्मरूपिणी और परम श्रेष्ठ मेरी विद्या है, इसमें सन्देह नहीं है। (८)

❑➧चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम्।
वेदत्रयी परानन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता।।९।।
❍ चिदा-नन्देन कृष्णेन
प्रोक्ता स्वमुखतो-ऽर्जुनम्।
वेद-त्रयी परानन्दा
तत्त्वार्थ-ज्ञान-संयुता।।९।।
❑अर्थ➠ वह श्री गीता चिदानन्द श्रीकृष्ण ने अपने मुख से अर्जुन को कही हुई तथा तीनों वेदस्वरूप, परमानन्दस्वरूप एवं तत्त्वरूप पदार्थ के ज्ञान से युक्त है। (९)

❑➧योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम्।।१०।।
❍ योऽष्टा-दश-जपो नित्यम्
नरो निश्चल-मानसः।
ज्ञान-सिद्धिम् स लभते
ततो याति परम् पदम्।।१०।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य स्थिर मनवाला होकर नित्य श्रीगीता अठारहों अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानरूप सिद्धि को प्राप्त होता है और फिर परम पद को पाता है। (१०)

❑➧पाठेऽसमर्थ: सम्पूर्णे ततोऽधं पाठमाचरेत्।
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः।।११।।
❍ पाठे-ऽसमर्थ: सम्पूर्णे
ततोऽधम् पाठ-माचरेत्।
तदा गो-दानजम् पुण्यम्
लभते नात्र संशयः।।११।।
❑अर्थ➠ सम्पूर्ण पाठ करने में असमर्थ हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होनेवाले पुण्य को प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं (११)

❑➧त्रिभागं पठमानस्तु गंगास्नानफलं लभेत्।
षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत्।।१२।।
❍ त्रिभागम् पठ-मानस्तु
गंगा-स्नान-फलम् लभेत्।
षडंशम् जप-मानस्तु
सोम-याग-फलम् लभेत्।।१२।।
❑अर्थ➠ तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगास्नान का फल प्राप्त करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है। (१२)

❑➧एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः।
रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम्।।१३।।
❍ एकाध्यायम् तु यो नित्यम्
पठते भक्ति-संयुतः।
रुद्र-लोकम-वाप्नोति
गणो भूत्वा वसेच्-चिरम्।।१३।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर नित्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुद्रलोक को प्राप्त होता है और वहाँ शिवजी का गण बनकर चिरकाल निवास करता है। (१३)

❑➧अध्याये श्लोक पादं वा नित्यं य: पठते नरः।
स याति नरतां यावन्मन्वन्तर वसुन्धरे।।१४।।
❍ अध्याये श्लोक पादम् वा
नित्यम् य: पठते नरः।
स याति नरताम् यावन्-
मन्वन्तर वसुन्धरे।।१४।।
❑अर्थ➠ हे पृथ्वी! जो मनुष्य नित्य एक अध्याय, एक श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का पाठ करता है, वह मन्वंतर तक मनुष्यता को प्राप्त करता है। (१४)

❑➧गीताया श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयम्।
द्वौ त्रीनेकं तदर्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः।।१५।।
❍ गीताया श्लोक-दशकम्
सप्त पञ्च चतुष्टयम्।
द्वौ त्रीनेकम् तदर्धम् वा
श्लोकानाम् यः पठेन्-नरः।।१५।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे श्लोक का पाठ करता है। (१५)

❑➧चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्रुवम्।
गीतापाठसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत्।।‍१६।।
❍ चन्द्र-लोकम-वाप्नोति
वर्षाणा-मयुतम् ध्रुवम्।
गीता-पाठ-समायुक्तो
मृतो मानुषताम् व्रजेत्।।‍१६।।
❑अर्थ➠ वह अवश्य दस हजार वर्ष तक चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। गीता के पाठ में लगे हुए मनुष्य की अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आदि की अधम योनियों में न जाकर) पुन: मनुष्य जन्म पाता है। (१६)

❑➧गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम्।
गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत्।।१७।।
❍ गीताभ्यासम् पुनः कृत्वा
लभते मुक्ति-मुत्तमाम्।
गीते-त्युच्चार-संयुक्तो
म्रिय-माणो गतिम् लभेत्।।१७।।
❑अर्थ➠ (और वहाँ) गीता का पुन: अभ्यास करके उत्तम मुक्ति को पाता है । ‘गीता’ ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है, वह सद्गति को पाता है। (१७)

❑➧गीतार्थश्रवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा।
वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णु ना सह मोदते।।१८।।
❍ गीतार्थ-श्रवणा-सक्तो
महापाप-युतोऽपि वा।
वैकुण्ठम् सम-वाप्नोति
विष्णु ना सह मोदते।।१८।।
❑अर्थ➠ गीता का अर्थ सुनने में तत्पर बना हुआ मनुष्य महापापी हो तो भी वह वैकुण्ठ को प्राप्त होता है और विष्णु के साथ आनन्द करता है। (१८)

❑➧गीतार्थं ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो देहान्ते परमं पदम्।।१९।।
❍ गीतार्थम् ध्यायते नित्यम्
कृत्वा कर्माणि भूरिशः।
जीवन्-मुक्तः स विज्ञेयो
देहान्ते परमम् पदम्।।१९।।
❑अर्थ➠ अनेक कर्म करके नित्य श्री गीता के अर्थ का जो विचार करता है उसे जीवन्मुक्त जानो। मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है। (१९)

❑➧गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निर्धूत कल्मषा लोके गीता याता: परं पदम्।।२०।।
❍ गीता-माश्रित्य बहवो
भूभुजो जनकादयः।
निर्धूत कल्मषा लोके
गीता याता: परम् पदम्।।२०।।
❑अर्थ➠ गीता का आश्रय करके जनक आदि कई राजा पाप रहित होकर लोक में यशस्वी बने हैं और परम पद को प्राप्त हुए है। (२०)

❑➧गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत्।
वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह्युदाहृतः।।२१।।
❍ गीतायाः पठनम् कृत्वा
माहात्म्यम् नैव यः पठेत्।
वृथा पाठो भवेत्-तस्य
श्रम एव ह्युदाहृतः।।२१।।
❑अर्थ➠ श्री गीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है, उसका पाठ निष्फल होता है और ऐसे पाठ को श्रमरूप कहा है। (२१)

❑➧एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीताभ्यासं करोति यः।
तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात्।।२२।।
❍ एतन्-माहात्म्य-संयुक्तम्
गीताभ्यासम् करोति यः।
तत्-फलम-वाप्नोति
दुर्लभाम् गति-माप्नुयात्।।२२।।
❑अर्थ➠ इस माहात्म्य सहित श्रीगीता का जो अभ्यास करता है, वह उसका फल पाता है और दुर्लभ गति को प्राप्त होता है। (२२)

❑➧सूत उवाच
माहात्म्यमेतद्गीताया मया प्रोक्तं सनातनम्।
गीतान्ते च पठेद्यस्तु यदुक्तं तत्फलं लभेत्।।२३।।
❍ माहात्म्य-मेतद्-गीताया
मया प्रोक्तम् सनातनम्।
गीतान्ते च पठेद्-यस्तु
यदुक्तम् तत्-फलम् लभेत्।।२३।।
❑अर्थ➠ सूतजी बोले ─ गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा। गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है, वह उपर्युक्त फल प्राप्त करता है। (२३)

❑➧इति श्रीवाराहपुराणे श्रीमद्गीतामाहात्म्यं सम्पूर्णम्।।
❍ इति श्रीवाराह-पुराणे श्रीमद्-गीता-माहात्म्यम् सम्पूर्णम्।।
❑अर्थ➠ इस प्रकार श्री वाराह पुराण में श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्य सम्पूर्ण हुआ।