गुर्वष्टकम् अर्थसहित
मनुष्य कितना भी ज्ञानी हो, बलवान हो, सर्वगुणसम्पन्न हो, परन्तु बिना गुरु इस भवसागर को नहीं तर सकता। गुरु बनाने के बाद भी जिसका मन गुरुचरणों में नहीं लगता तो उसका जीवन निर्रथक है।
आइये,
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सुगम ज्ञान संगम के अध्यात्म + स्तोत्र संग्रह स्तम्भ में अाद्यगुरु शंकराचार्य के अन्तर्मन के इस भाव, गुर्वष्टकम् का अर्थ जानते हैं।
❀ गुर्वष्टकम् ❀
❑➧शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।१।।
❑अर्थ➠ यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई हो। मेरु पर्वत के समान अपार धन हो, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
❑➧कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं
गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।२।।
❑अर्थ➠ सुन्दर पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्धवश सुलभ हों, किन्तु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
❑➧षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।३।।
❑अर्थ➠ वेद एवं षट्वेदांगादि शास्त्र जिन्हें कण्ठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-रचना की प्रतिभा हो, किन्तु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो तो इन सद्गुणों से क्या लाभ?
❑➧विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।४।।
❑अर्थ➠ जिन्हें विदेशों में समान आदर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचारपालन में भी अनन्य स्थान रखते हों, किन्तु यदि उनका मन गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो तो इन सद्गुणों से क्या लाभ?
❑➧क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।५।।
❑अर्थ➠ जिन महानुभावों के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किन्तु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो तो इस सद्भाग्य से क्या लाभ?
❑➧यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।६।।
❑अर्थ➠ दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य प्राप्त हों, किन्तु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?
❑➧न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ
न कान्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।७।।
❑अर्थ➠ जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्री-सुख और धन-उपभोग से भी विचलित न हुआ हो, फिर भी किन्तु गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?
❑➧अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।८।।
❑अर्थ➠ जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह आसक्त न हो पाया हो तो उसकी सारी अनासक्तियों से क्या लाभ?
❑➧अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्
समालिङ्गिता कामिनी यामिनीषु
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।९।।
❑अर्थ➠ अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समालिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों में आसक्त न हो पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि से क्या लाभ?
❑➧गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।
लभेत वाञ्छितार्थ पदं ब्रह्मसञ्ज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्।।१०।।
❑अर्थ➠ जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचनों में आसक्त है, वह पुण्यशाली देहधारी अपने इच्छित पदार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को प्राप्त कर लेता है, यह निश्चित है।
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