चतुःश्लोकी भागवत

चतुःश्लोकी भागवत भगवान् विष्णु द्वारा ब्रह्माजी को दिया गया उपदेश है, जो तत्त्वज्ञान का बोध कराता है। यह अनुष्टुप् छन्द पर आधारित है। ३ से ६ श्लोक मूल चतुःश्लोकी भागवत है। इसे कण्ठस्थ करके नित्य पठन करने से भगवद्ज्ञान में रुचि होने लगती है, यह मेरी स्वयं की अनुभूति है।

www.sugamgyaansangam.com
सुगम ज्ञान संगम के अध्यात्म + स्तोत्र संग्रह स्तम्भ में इसका हिन्दी में अर्थ जानते हैं।

चतुःश्लोकी भागवत
(❑➧मूलश्लोक ❑अर्थ➠सहित)

❑➧श्रीभगवानुवाच
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।
सरहस्यं तरङ्ग च गृहाण गदितं मया।।१।।
❑अर्थ➠ श्री भगवान बोले-[हे चतुरानन!] मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है, उसको और उसके साधन को मैं कहता हूँ, सुनो।।१।।

❑➧यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मक:।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्।।२।।
❑अर्थ➠ मेरे जितने स्वरूप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप, गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुमको उसी प्रकार तत्त्व का विज्ञान हो।।२।।

❑➧अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।३।।
❑अर्थ➠ सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त जो स्थूल, सूक्ष्म या प्रकृति हैं ─इनमेंसे कुछ भी न था। सृष्टि के पश्चात् भी मैं ही था, जो यह जगत् (दृश्यमान) है, यह भी मैं ही हूँ और प्रलयकालमें जो शेष रहता है वह मैं ही हूँ।।३।।

❑➧ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तम:।।४।।
❑अर्थ➠ जिसके कारण आत्मा का वास्तविक अर्थ के न रहते हुए भी उसकी प्रतीति हो और अर्थ के रहते हुए भी उसकी प्रतीति न हो, उसीको मेरी माया जानो; जैसे आभास (एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा का भ्रमात्मक ज्ञान) और जैसे राहु (राहु जैसे ग्रहमण्डलों में स्थित होकर भी नहीं दिखाई पड़ता)।।४।।

❑➧यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।५।।
❑अर्थ➠ जैसे पाँच महाभूत पदार्थों में कार्य और कारणभाव से प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहते हैं, उसी प्रकार मैं इन भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट रहता हूँ और अप्रविष्ट भी। [इस
प्रकार मेरी सत्ता है।]।।५।।

❑➧एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा।।६।।
❑अर्थ➠ आत्म-तत्त्व के जिज्ञासु के लिये इतना ही जिज्ञासा है, जो अन्वयव्यतिरेक से सर्वत्र और सर्वदा रहे, वही आत्मा है।।६।।

❑➧एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।।७।।
❑अर्थ➠ चित्त की परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठान करें, कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन का अभिमान न होगा।।७।।

 

कर्म करने में हमारा अधिकार है, किन्तु फल में नहीं, इसलिये अच्छे कर्म करते रहिये।