जिन खोजा तिन पाइया
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
कबीर दासजी कहते हैं कि जो हमेशा प्रयास करते रहते हैं वो अपने जीवन में कुछ न कुछ पा ही लेते हैं। जैसे गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता है और जो डूबने के डर से प्रयास नहीं करता है वो किनारे पर ही रह जाता है।
कबीरजी एक दोहे को भी समझने के लिये बहुत सूझ-बूझ चाहिये। आज के इस पोस्ट में एक दोहे पर ही चर्चा करेंगे, किन्तु गहराई तक जाकर इस पर विचार करेंगे, दोहा है
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान।
अपनी अपनी सब कहै, किसको दीजै कान।।
अन्धों ने मिलकर हाथी को छुआ, सबने अपने ज्ञान के अनुसार अनुमान लगाया और वर्णन किया, [ किसी ने भीत कहा, किसी ने हाथी कह दिया। सबने अपने-अपने अनुमान से कुछ-न-कुछ बता ही दिया, लेकिन किसकी बात सुनि जाये? किसे सच माना जाये?] इस दोहे का अर्थ तो साधारण है, किन्तु कबीरजी ने इस दोहे के माध्यम से अज्ञानियों के लिये बहुत गूढ़ बात कह दी है।
श्रीमद्भागवत का एक श्लोक है ᅳ
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।
इस जगत् में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपने की तरह मन का विलास है। इसलिए मायामात्र है, मिथ्या हैᅳ ऐसा समझ लो।
इस संसार का इन्द्रियगत ज्ञान, चाहे सुख हो या दुःख, अमीरी हो या ग़रीबी, पुण्य हो या पाप सब माया अर्थात् मिथ्या है। यह सत्य की तरह लगता है किन्तु सत्य नहीं है। जो इन सबसे परे जा सकता है, वही तत्त्वज्ञान को उपलब्ध हो सकता है, किन्तु यह किसी भी संसारी के लिये सम्भव नहीं है; क्योंकि संसारी व्यक्ति आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा से जो भी देखता है, सुनता है, सूँघता है, स्वाद लेता है, स्पर्श करता है और उसके बारे में जो भी मन से सोचता है, मस्तिष्क से निर्णय लेता है, वहीं तक सीमित है। चाहे बड़े-से-बड़ा वैज्ञानिक हो, उसकी सीमा यहीं तक है।
कबीरजी जैसे सन्त ही इन्द्रियगत ज्ञान से परे आत्मतत्त्व को जान सकते हैं, किन्तु उसका वर्णन वे भी नहीं कर सकते हैं; क्योंकि वर्णन होगा तो वह भी इन्द्रियगत होगा, इसलिये उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से संसार को सत्य मानकर चलनेवाले और स्वयं को श्रेष्ठ समझनेवालों के बारे में कह दिया है
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान।
अपनी अपनी सब कहै, किसको दीजै कान।।
यह दोहा नास्तिकोें और आस्तिकों को भी सचेत करता है कि ईश्वर को मानो या मत मानो तुम्हारे मानने न मानने से उसके अस्तित्व में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, इसलिये उन्होंने यह दोहा कहा है ᅳ
लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात।
दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।।
परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। मतलब जब परमात्म तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है तो संसार का आकर्षण अपने-आप ख़त्म हो जाता है।
नास्तिक कहता भगवान नहीं है और आस्तिक कहता है भगवान है।
अनेक अंधों ने हाथी को छूकर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।