दुर्गापदुद्धार स्तोत्र
श्री सिद्धेश्वरी तन्त्र के अन्तर्गत उमा महेश्वर संवाद में श्री दुर्गापदुद्धार स्तोत्र का उल्लेख है। इसके माहात्म्य में भगवान् शिव ने कहा है इसके पाठ से इस संसार का कोई भी मनोरथ सिद्ध जाता है। जो मनुष्य भक्ति परायण होकर सम्पूर्ण स्तोत्र अथवा इसके एक श्लोक को ही पढ़ता है, वह समस्त पापोंसे छूटकर परम पद प्राप्त करता है। पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक में अथवा पाताललोक में, कहीं भी तीनों सन्ध्याकालों (सूर्योदय, दोपहर, सूर्यास्त) अथवा एक सन्ध्याकाल में इस स्तोत्र का पाठ करने से प्राणी घोर संकटसे छूट जाता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। विपदाओं से उद्धार के लिये यह स्तोत्र भगवान् शिव ने कहा है।
देवताओं, सिद्धों, विद्याधरों, मुनियों, मनुष्यों, पशुओं, लुटेरों से पीड़ित जनों की, राजाओं के बन्दीगृह में डाले गये लोगों तथा व्याधियों से पीड़ित प्राणियों की एकमात्र शरण माँ दुर्गा की यह स्तुति बड़ी ही धारा-प्रवाह है। ‘नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे’ इस पद की हर बार पुनरावृत्ति है जिसका अर्थ है जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये।
यह स्तोत्र संकटों का शीघ्र हरण करता है। भगवान् शिव द्वारा कहा गया स्तोत्र स्तोत्रों का राजा है। देवी भक्तों के लिये यह किसी वरदान से कम नहीं है। आइये, https://sugamgyaansangam.com के पोस्ट में इसे लघु शब्दों की सहायता से पढ़कर माँ दुर्गा का आशीर्वाद पायें। मूल श्लोक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित देवीस्तोत्ररत्नाकर पर आधारित हैं।
स्तोत्र के अन्त में JPG image उपलब्ध है, जिसे डाऊनलोड करके श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रम् कभी भी सरलता पूर्वक पढ़ा जा सकता है। यह पोस्ट देवी भक्तों के लिये उपयोगी साबित हो यही, हमारा उद्देश्य है।
श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रम्
❑➧नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे।
नमस्ते जगद्वन्द्य पादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।१।।
❍ नमस्ते शरण्ये शिवे सानु-कम्पे
नमस्ते जगद्-व्यापिके विश्व-रूपे।
नमस्ते जगद्-वन्द्य पादार-विन्दे
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।१।।
❑➧नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे।
नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।२।।
❍ नमस्ते जगच्-चिन्त्य-मान-स्वरूपे
नमस्ते महा-योगिनि ज्ञान-रूपे।
नमस्ते नमस्ते सदा-नन्द-रूपे
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।२।।
❑➧अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।३।।
❍ अनाथस्य दीनस्य तृष्णा-तुरस्य
भयार्-तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-कर्त्री
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।३।।
❑➧अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्येऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहे।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।४।।
❍ अरण्ये रणे दारुणे शत्रु-मध्येऽ
नले सागरे प्रान्तरे राज-गेहे।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-नौका
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।४।।
❑➧अपारे महादुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम्।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।५।।
❍ अपारे महा-दुस्तरे-ऽत्यन्त-घोरे
विपत्-सागरे मज्जतां देहभाजाम्।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-हेतुर्
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।५।।
❑➧नमश्चण्डिके चण्डदुर्दण्डलीला समुत्खण्डिताखण्डिताशेषशत्रो।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।६।।
❍ नमश्-चण्डिके चण्ड-दुर्दण्ड-लीला
समुत्-खण्डिता-खण्डिता-शेष-शत्रो ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-बीजं
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।६।।
❑➧त्वमेवाघभावाधृतासत्यवादीर्न जाता जितक्रोधनात् क्रोधनिष्ठा।
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्णा च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।७।।
❍ त्वमे-वाघ-भावा-धृता-सत्यवादीर्
न जाता जित-क्रोधनात् क्रोध-निष्ठा।
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्णा च नाडी
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।७।।
❑➧नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे।
विभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।८।।
❍ नमो देवि दुर्गे शिवे भीम-नादे
सरस्वत्य-रुन्धत्य-मोघ-स्वरूपे।
विभूतिः शची काल-रात्रिः सती त्वं
नमस्ते जगत्-तारिणि त्राहि दुर्गे।।८।।
❑➧शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानाम्।
नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद।।९।।
❍ शरण-मसि सुराणां सिद्ध-विद्या-धराणां
मुनि-मनुज-पशूनां दस्यु-भिस् त्रासि-तानाम्।
नृपति-गृह-गतानां व्याधिभिः पीडितानां
त्वमसि शरण-मेका देवि दुर्गे प्रसीद।।९।।
❑➧इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम्।
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा पठनाद् घोरसङ्कटात्।।१०।।
❍ इदं स्तोत्रं मया प्रोक्त
माप-दुद्धार-हेतुकम्।
त्रिसन्ध्य-मेक-सन्ध्यं वा
पठनाद् घोर-सङ्कटात्।।१०।।
❑➧मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले।
सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान् सदा।।११।।
❍ मुच्यते नात्र सन्देहो
भुवि स्वर्गे रसा-तले।
सर्वं वा श्लोक-मेकं वा
यः पठेद्-भक्ति-मान् सदा।।११।।
❑➧स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम्।
पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले।।१२।।
❍ स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा
प्राप्नोति परमं पदम्।
पठना-दस्य देवेशि
किं न सिद्ध्यति भूतले।।१२।।
❑➧स्तवराजमिदं देवि संक्षेपात्कथितं मया।।१३।।
❍ स्तव-राज-मिदं देवि
संक्षेपात्-कथितं मया।।१३।।
।।इति श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्र उमामहेश्वरसंवादे श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।