देवी अथर्वशीर्ष अर्थ

देवी अथर्वशीर्ष अर्थ

किसी भी अथर्वशीर्ष के आरम्भ और अन्त में उसका शान्तिपाठ करने से उस अथर्वशीर्ष के पाठ का सम्यक् फल प्राप्त होता है।
https://sugamgyaansangam.com के इस पोस्ट में देवी अथर्वशीर्ष का हिन्दी में अर्थ प्रस्तुत है।

● शान्तिपाठ ●

❑➧ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाᳬंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
❑अर्थ➠हे देवगण! हम भगवान् का यजन (आराधन) करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें, नेत्रों से कल्याण (ही) देखें, सुदृढ़ अंगों एवं शरीर से भगवान् की स्तुति करते हुए हम लोग जो आयु आराध्यदेव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। सब ओर फैले हुए सुयशवाले इन्द्र हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखनेवाले पूषा हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, अरिष्टों को मिटाने के लिये चक्रसदृश शक्तिशाली गरुडदेव हमारे लिये कल्याण का पोषण करें तथा (बुद्धि के स्वामी) बृहस्पति भी हमारे लिये कल्याण की पुष्टि करें। परमात्मन्! हमारे त्रिविध तापकी शान्ति हो।

श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्
(हिन्दी अर्थसहित)

❑➧ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।।१।।
❑अर्थ➠ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और नम्रता से पूछने लगे, हे महादेवि! तुम कौन हो?।।१।।

❑➧साब्रवीत्⸺ अहं ब्रह्मस्वरूपिणी।
मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।।२।।
❑अर्थ➠उसने कहा⸺मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।।२।।

❑➧अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।।३।।
❑अर्थ➠मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और ब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूँ।।३।।

❑➧वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्‍चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।।४।।
❑अर्थ➠वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।।४।।

❑➧अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्‍चरामि। अहमादित्यैरुत विश्‍वदेवैः। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्‍विनावुभौ।।५।।
❑अर्थ➠मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वेदेवों के रूप में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ।।५।।

❑➧अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।।६।।
❑अर्थ➠मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त कर नेके लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।।६।।

❑➧अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति।।७।।
❑अर्थ➠देवों के उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमानके लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में (यजन करनेयोग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धि वृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति का लाभ प्राप्त करता है।।७।।

❑➧ते देवा अब्रुवन् ⸺ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।८।।
❑अर्थ➠तब उन देवों ने कहा, देवी को नमस्कार है। महादेवी एवं कल्याण कर्त्री को सदा नमस्कार है। गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।।८।।

❑➧तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।९।।
❑अर्थ➠उन अग्नि के समान वर्णवाली, तप से जगमगानेवाली, दीप्तिमती, कर्मफलप्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है।।९।।

❑➧देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्‍वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।।१०।।
❑अर्थ➠प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनुतुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग्रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।।१०।।

❑➧कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।।११।।
❑अर्थ➠काल का भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णु शक्ति, स्कन्दमाता (शिव शक्ति), सरस्वती (ब्रह्म शक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।।११।।

❑➧महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्।।१२।।
❑अर्थ➠हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्ग में प्रवृत्त करें।।१२।।

❑➧अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।१३।।
❑अर्थ➠हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए।।१३।।

❑➧कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्‍वाभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्‍वमातादिविद्योम्।।१४।।
❑अर्थ➠काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ही), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा-वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ही), स, क, ल-वर्ण और माया (ही)-यह सर्वात्मिका जगन्माताकी मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है।।१४।।

❑➧एषाऽऽत्मशक्तिः। एषा विश्‍वमोहिनी।
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा। एषा श्रीमहाविद्या।
य एवं वेद स शोकं तरति।।१५।।
❑अर्थ➠परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये ‘श्री महाविद्या’ हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है।।१५।।

❑➧नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः।।१६।।
❑अर्थ➠भगवती! तुम्हें नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो।।१६।।

❑➧सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादश रुद्राः। सैषा द्वादशादित्याः। सैषा विश्‍वेदेवाः सोमपा असोमपाश्‍च। सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। सैषा सत्त्वरजस्तमांसि। सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि। कलाकाष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम्।।
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्।।१७।।
❑अर्थ➠(मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वसु हैं; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वहीं ये सोमपान करनेवाले और सोमपान न करनेवाले विश्वेदेव हैं; वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज-तम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णु-रुद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अन्तर्हित, विजय अधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।।१७।।

❑➧वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्।।१८।।
❑➧एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः।।१९।।
❑अर्थ➠वियत्-आकाश (ह) तथा ‘ई’कार से युक्त, वीतिहोत्र-अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र (ँ) से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता है। ॐकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है। संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान-क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।)।।१८-१९।।

❑➧वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्‍चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः।।२०।।
❑अर्थ➠वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू-काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्र अर्थात् आकारसे युक्त (चा), सूर्य (म), ‘अवाम श्रोत्र’-दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार युक्त (मुं), टकारसे तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मित्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त (यै) और ‘विच्चे’ यह नवार्ण मंत्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है।।२०।।
[इस मंत्र का अर्थ-हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्-रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।]

❑➧हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे।।२१।।
❑अर्थ➠हृदयकमल के मध्य में रहनेवाली, प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रभावाली, पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्त वस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवी को मैं भजता हूँ।।२१।।

❑➧नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्।।२२।।
❑अर्थ➠महाभय का नाश करनेवाली, महासंकट को शान्त करनेवाली और महान् करुणा के साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।२२।।

❑➧यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया। यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता। यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या। यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा। एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका। एकैव विश्‍वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति।।२३।।
❑अर्थ➠जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते ─ इसलिये जिसे अज्ञेय कहते हैं; जिसका अन्त नहीं मिलता ─ इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं; जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता ─ इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं; जिसका जन्म समझ में नहीं आता ─ इसलिये जिसे अजा कहते हैं; जो अकेली ही सर्वत्र है ─ इसलिये जिसे एका कहते हैं; जो अकेली ही समस्त रूपों में सजी हुई है ─ इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेय, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती है।।२३।।

❑➧मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता।।२४।।
❑अर्थ➠सब मंत्रों में ‘मातृका’- मूलाक्षर रूप से रहनेवाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ) रूप से रहनेवाली, ज्ञान में ‘चिन्मयातीता’, शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।।२४।।

❑➧तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्।।२५।।
❑अर्थ➠उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशिनी और संसार सागर से तारनेवाली दुर्गादेवी को (संसार से डरा हुआ) मैं नमस्कार करता हूँ।।२५।।

❑➧इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयतिशतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति। शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्‍चर्याविधिः स्मृतः। शत-मष्टोत्तरं चास्य पुरश्‍चर्या-विधिः स्मृतः। दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते। महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः।।२६।।
❑अर्थ➠इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्ष के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को बिना जाने ही जो प्रतिमास्थापन आदि करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चना सिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तरशत (१०८ बार) जप (इत्यादि) इसकी पुरश्चरणविधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।।२६।।

❑➧सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति। निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति। नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्‍विन्यां महादेवीसन्निधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति। स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत्।।
❑अर्थ➠इसका सायंकाल में पाठ करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रात:काल में पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापोंका नाश करता है। सायं तथा प्रात: दोनों समय पाठ करनेवाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय सन्ध्या (श्रीविद्या के उपासकों के लिये चार सन्ध्याएँ बतायी गयी हैं, जिनमें तुरीय सन्ध्या मध्यरात्रि में होती है) के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योग में महादेवी की सन्निधिमें जप करने से महामृत्यु से तर जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है।

● शान्तिपाठ ●
❑➧ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाᳬंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
(अर्थ जानने हेतु आरम्भ में देखें।)

।।इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम्।।