बन्द करो ये लहू धार का

बन्द करो ये लहू धार का

मुझे यह कविता व्हॉट्सएप पर किसी ने प्रेषित की थी। यह जिसकी भी रचना है उस कवि को हृदयपूर्वक धन्यवाद है! इस कविता की हर पंक्ति में वो सच्चाई है, जिसे स्वाद के वशीभूत होकर हम नज़र अन्दाज़ करते रहते हैं। ध्यानपूर्वक पढ़ते हुए आत्मसात करें। पढ़ते-पढ़ते आपके हृदय में उतर जाये तो सुगम ज्ञान संगम की तरफ़ से आपको कोटि कोटि धन्यवाद है!

बन्द करो ये लहू धार का, जीवन का व्यापार।
मूक पशु की पीड़ा समझो, अपनाओ शाकाहार।।

अरे मनुज ने मानवता तज, पशुता का यह मार्ग चुना।
नीच कर्म यह महापाप है, सब पापों से कई गुना।।

दर-दर भटके शान्ति खोजे, मानवता के नारों में।
उलझा तीन टके के पीछे, पशु वध के व्यापारों में।।

कहाँ सुकून मिलेगा हमको, जब हर घर में चित्कार है।
लाल लहू से जीभ रँगी है, और हाथों में तलवार है।।

चोट यदि मुन्ने को लगती, तब कितनी पीड़ा होती है।
क्यों कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब बकरे की अम्मा रोती है।।

कई माँओं की छिपी व्यथा है, तेरी षटरस थाली में।
कई वधों की लिखी कथा, तेरे होठों की लाली में।।

मन्दिर में पूजे गोमाता, कब घर में आदर पाती है।
दूध पिलाना बन्द करे तो, गाय कतल की जाती है।।

यदि आज पशु रोता है तो, कल तेरी भी बारी है।
इन तलवारों की धारों की, नहीं किसी से यारी है।।

अरे पशु की छोड़ो चिन्ता, अब अपनी ही बात करो।
रहे नहीं जो यदि काम के, वे बोलेंगे अपघात करो।।

कहो कहाँ दरकार रही, अब बाहर के शत्रुओं की।
गर्भपात कर करते हत्या, ख़ुद अपने शिशुओं की।।

मेरी-तेरी हो या पशुओं की, अरे जान तो जान है।
इसमें उसमें जो फ़र्क़ करे, वह क़ायर है बेईमान है।।

मांसाहार का दूषण लोगों, ना दूर क्षितिज का अन्धेरा।
आज द्वार पर दस्तक देता, जाने कब कर लेगा डेरा।।

अरे अश्रु की धाराओं ने, अपने आशय खो डाले।
अरे लहू के लाल रंगों से, खेलें बालक भोले भाले।।

उनके जीवन में कहाँ दया, क्या प्रेम भावना रह पायेगी।
ख़ुद ही आप लुटा पाओगे, जब बाढ़ खेत को खायेगी।।

करे शूल का बीजारोपण, उगता पेड़ बबूल का।
अनन्तकाल भुगतोगे दूषण, एक समय की भूल का।।

इससे पहले कि लुट जाएँ, जाग्रत हो जाना चाहिए।
हम भी रहें शाकाहारी, औरों को बनाना चाहिए।।

तुम तो ख़ुद भी इक जीव, जीव का रखो तो सम्मान।
नहीं बनो क़ातिल हत्यारे, बनना हो तो बनो इन्सान।।

अरे! एक जीवन की ख़ातिर, कितने जीवन छीनोगे?
अपनी उनकी एक जात है, कब इस सच को चीन्होगे??

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जिसकी यह मान्यता है कि मांसाहार उचित है। उसके भीतर एक उन्माद है, जो स्वाद की ख़ातिर जीवन भर उसके सर पर सवार रहता है। जब वह ख़ुद या उसका बच्चा किसी हिंसक जीव का आहार बने, तब भी उसके भीतर यही उन्माद (पागलपन) होना चाहिये, लेकिन तब यह उन्माद ख़त्म हो जाता है। कैसी विडम्बना है?