भवान्यष्टकम् हिन्दी अर्थ

भवान्यष्टकम् हिन्दी अर्थ

भवान्यष्टकम् आद्यगुरु शंकराचार्य की रचना है, जिसमें उन्होंने संसार के सारे रिश्ते-नाते, ऐश्वर्य, स्वयं का सामर्थ्य इन सबको तुच्छ बताते हुए एकमात्र मात भवानि अपनी गति कहा है। इस स्तोत्र का फल क्या है, मुझे नहीं मालूम, परन्तु देवी भक्तों के लिये यह सर्वसिद्धिदायी है, यह मेरा विश्वास है।

पुत्र पापी हो या पुण्यात्मा, निर्बल हो या बलवान, निर्धन हो या धनवान, संकट में हो या आनन्द में हर काल, हर अवस्था में वह माँ के लिये बेटा ही होता है। जब एक नन्हा-सा बालक सब कुछ छोड़कर केवल अपनी माँ की गोद में जाना चाहता है तो उसके रुदन से माँ कहीं भी हो चली आती है और उसे अपनी गोद में उठा लेती है, उसी प्रकार यह स्तोत्र माँ दुर्गा के वात्सल्य प्रेम को पाने का सर्वोपरि साधन है।

इसका भुजंगप्रयात छन्द भी इतना सरल है कि थोड़े-से अभ्यास से हम इसे आसानी से बोल सकते हैं।
तो आइये
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सुगम ज्ञान संगम के अध्यात्म + स्तोत्र संग्रह स्तम्भ में मूलपाठ सहित इसका हिन्दी में अर्थ जानते हैं।

भवान्यष्टकम्

❑➧न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।१।।
❑अर्थ➠ हे भवानि! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, दास, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।१।।

❑➧भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।२।।
❑अर्थ➠ मैं अपार भवसागर में पड़ा हुआ हूँ। महान् दु:ख से भयभीत हूँ। कामी, लोभी, मतवाला तथा घृणायोग्य सांसारिक बन्धन में बँधा हुआ हूँ। हे भवानि! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।२।।

❑➧न जानामि दानं न च ध्यान योगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्र मन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यास योगं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।३।।
❑अर्थ➠ हे देवि! मैं न तो दान देना जानता हूँ और न ही ध्यानमार्ग का मुझे ज्ञान है। तन्त्र और स्तोत्र मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है। पूजा तथा न्यास आदि
क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ। अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।३।।

❑➧न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थ
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मात
र्गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।४।।
❑अर्थ➠ मैं न तो पुण्य जानता हूँ न तीर्थ, न मुक्ति का पता है न लय का। हे माते! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है। हे भवानि! अब केवल तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।४।।

❑➧कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचार हीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।५।।
❑अर्थ➠ मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहनेवाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास, कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुदृष्टि रखनेवाला और सदा दुर्वचन बोलनेवाला हूँ। हे भवानि! मुझ अधम की एकमात्र तुम्हीं गति हो, तुम्हीं गति हो।।५।।

❑➧प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ।।६।।
❑अर्थ➠ मैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता। हे शरण देनेवाली भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।६।।

❑➧विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।७।।
❑अर्थ➠ हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अग्नि, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में सदा ही मेरी रक्षा करना। हे भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।७।।

❑➧अनाथो दरिद्रो जरा रोग युक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।८।।
❑अर्थ➠ हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूँगा, विपद्ग्रस्त और नष्ट हूँ। अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो।।८।।

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं भवान्यष्टकं सम्पूर्णम्।