महादेव स्तुति का उल्लेख श्रीस्कन्दमहापुराण के काशीखण्ड में है। देवताओं के गुरु बृहस्पति द्वारा की गयी इस स्तुति के बारे स्वयं भगवान् शिव कहते हैं─
मेरे सान्निध्य में निरन्तर इसका पाठ करने से अविवेकीजनों की भी दुराचार में प्रवृत्ति नहीं होगी। इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य ग्रहजनित पीड़ा को प्राप्त नहीं होगा, प्रात:काल उठकर जो नित्य इसका पाठ करेगा, उसकी महान्-से-महान् भयंकर बाधाओं को मैं हर लूँगा। जो साधक तीन वर्षों तक तीनों समय केवल इसका पाठ भी करेगा, उसके प्रति सरस्वती उदित हो जायेंगी और उसकी वाणी परिष्कृत हो जायेगी।
प्रियजनो, आप समझ सकते हैं कि यह स्तोत्र कितना प्रभावशाली एवं शक्तिशाली है, जिसका माहात्म्य स्वयं शिवशम्भू बता रहे हैं और सबसे अच्छी बात तो है कि इसे बोलना अन्य स्तोत्रों की तरह कठिन नहीं है। इसके ८ श्लोकों के छन्द का प्रवाह जल धारा की तरह है और शेष ७ श्लोक अनुष्टुप् छन्द पर आधारित हैं, अतः इसे लघु ❍ शब्दों की सहायता से बड़ी सरलता से पढ़ा जा सकता है। मूल श्लोक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब शिवस्तोत्ररत्नाकर पर आधारित हैं। लघु शब्दों का PDF पोस्ट के अन्त में दिया गया है।
महादेवस्तुतिः
बृहस्पतिरुवाच
❑➧जय शङ्कर शान्त शशाङ्करुचे रुचिरार्थद सर्वद सर्वशुचे।
शुचिदत्तगृहीतमहोपहृते हृतभक्तजनोद्धततापतते।।१।।
❍ जय शङ्कर शान्त शशाङ्क रुचे
रुचिरार्थद सर्वद सर्व शुचे।
शुचि दत्त गृहीत महोप हृते
हृत भक्त जनोद्धत ताप तते।।१।।
❑➧ततसर्वहृदम्बर वरद नते नतवृजिनमहावनदाहकृते।
कृतविविधचरित्रतनो सुतनो तनुविशिखविशोषणधैर्यनिधे।।२।।
❍ तत सर्व हृदम्बर वरद नते
नत वृजिन महावन दाह कृते।
कृत विविध चरित्र तनो सुतनो
तनु विशिख विशोषण धैर्य निधे।।२।।
❑➧निधनादिविवर्जित कृतनतिकृत् कृतिविहितमनोरथपन्नगभृत्।
नगभर्तृसुतार्पितवामवपुः स्ववपुः परिपूरितसर्वजगत्।।३।।
❍ निधनादि विवर्जित कृत नतिकृत्
कृति विहित मनोरथ पन्नग भृत्।
नग भर्तृ सुतार्पित वाम वपुः
स्व वपुः परि पूरित सर्व जगत्।।३।।
❑➧त्रिजगन्मयरूप विरूप सुदृग् दृगुदञ्चन कुञ्चनकृतहुतभुक्।
भव भूतपते प्रमथैकपते पतितेष्वपि दत्तकरप्रसृते।।४।।
❍ त्रिजगन्मय रूप विरूप सुदृग्
दृगु दञ्चन कुञ्चन कृत हुत भुक्।
भव भूत पते प्रमथैक पते
पति-तेष्वपि दत्त कर प्रसृते।।४।।
❑➧प्रसृताखिलभूतलसंवरण प्रणवध्वनिसौधसुधांशुधर।
धरराजकुमारिकया परया परितः परितुष्ट नतोऽस्मि शिव।।५।।
❍ प्रसृता खिल भूतल संवरण
प्रणव ध्वनि सौध सुधांशु धर।
धर राज कुमारि कया परया
परितः परि तुष्ट नतोऽस्मि शिव।।५।।
❑➧शिव देव गिरीश महेश विभो विभवप्रद गिरिश शिवेश मृड।
मृडयोडुपतिध्र जगत् त्रितयं कृतयन्त्रणभक्तिविघातकृताम्।।६।।
❍ शिव देव गिरीश महेश विभो
विभव प्रद गिरिश शिवेश मृड।
मृडयोडु पतिध्र जगत् त्रितयं
कृत यन्त्रण भक्ति विघात कृताम्।।६।।
❑➧न कृतान्तत एष विभेमि हर प्रहराशु महाघममोघमते।
न मतान्तरमन्यदवैमि शिवं शिवपादनते: प्रणतोऽस्मि ततः।।७।।
❍ न कृतान्तत एष विभेमि हर
प्रहराशु महा घम मोघ मते।
न मतान्तर मन्य दवैमि शिवं
शिव पाद नते: प्रणतो ऽस्मि ततः।।७।।
❑➧विततेऽत्र जगत्यखिलेऽघहरं हरतोषणमेव परं गुणवत्।
गुणहीनमहीनमहावलयं प्रलयान्तकमीश नतोऽस्मि ततः।।८।।
❍ विततेऽत्र जगत्य खिले ऽघहरं
हर तोषण मेव परं गुणवत्।
गुणहीन महीन महा वलयं
प्रलयान्तक-मीश नतोऽस्मि ततः।।८।।
इति स्तुत्वा महादेवं विररामाङ्गिरः सुतः।
व्यतरच्च महेशानः स्तुत्या तुष्टो वरान् बहून्।।९।।
❍ इति स्तुत्वा महादेवं
विर-रामाङ्गिरः सुतः।
व्यत रच्च महेशानः
स्तुत्या तुष्टो वरान् बहून्।।९।।
❑➧बृहता तपसाऽनेन बृहतां पतिरेध्यहो।
नाम्ना बृहस्पतिरिति ग्रहेष्वर्च्यो भव द्विज।।१०।।
❍ बृहता तपसा ऽनेन
बृहतां पति रेध्यहो।
नाम्ना बृहस्पति रिति
ग्रहेष्वर्च्यो भव द्विज।।१०।।
❑➧अस्य स्तोत्रस्य पठनादपि वागुदियाच्च यम्।
तस्य स्यात संस्कृता वाणी त्रिभिर्वर्षैस्त्रिकालतः।।११।।
❍ अस्य स्तोत्रस्य पठना
दपि वागु दियाच्च यम्।
तस्य स्यात् संस्कृता वाणी
त्रिभिर् वर्षैस् त्रिकालतः।।११।।
❑➧अस्य स्तोत्रस्य पठनान्नियतं मम सन्निधौ।
न दुर्वृत्तौ प्रवृत्तिः स्यादविवेकवतां नृणाम्।।१२।।
❍ अस्य स्तोत्रस्य पठनान्
नियतं मम सन्निधौ।
न दुर्वृत्तौ प्रवृत्तिः स्याद
विवेक वतां नृणाम्।।१२।।
❑➧अदः स्तोत्रं पठञ्जन्तुर्जातु पीडां ग्रहोद्भवाम्।
न प्राप्स्यति ततो जप्यमिदं स्तोत्रं ममाग्रतः।।१३।।
❍ अदः स्तोत्रं पठञ्जन्तुर्
जातु पीडां ग्रहोद् भवाम्।
न प्राप्स्यति ततो जप्य
मिदं स्तोत्रं ममाग्रतः।।१३।।
❑➧नित्यं प्रातः समुत्थाय यः पठिष्यति मानवः।
इमां स्तुतिं हरिष्येऽहं तस्य बाधाः सुदारुणाः।।१४।।
❍ नित्यं प्रातः समुत्थाय
यः पठिष्यति मानवः।
इमां स्तुतिं हरिष्येऽहं
तस्य बाधाः सुदारुणाः।।१४।।
❑➧त्वत्प्रतिष्ठितलिङ्गस्य पूजां कृत्वा प्रयत्नतः।
इमां स्तुतिमधीयानो मनोवाञ्छामवाप्स्यति।।१५।।
❍ त्वत् प्रतिष्ठित लिङ्गस्य
पूजां कृत्वा प्रयत्नतः।
इमां स्तुतिम धीयानो
मनो वाञ्छाम वाप्स्यति।।१५।।
।।इति श्रीस्कन्दमहापुराणे काशीखण्डे महादेव स्तुति: सम्पूर्णा।।
हिन्दी अर्थ
बृहस्पति जी बोले-
❑अर्थ➠ चन्द्रमा के समान गौर कान्तिवाले, शान्तस्वरूप शंकर! आपकी जय हो। आप रुचि के अनुकूल मनोहर पदार्थों एवं चारों पुरुषार्थों को देनेवाले हैं। सर्वस्वरूप, सब कुछ देनेवाले तथा नित्य शुद्ध हैं। पवित्र भक्तों द्वारा शुद्ध भाव से दी हुई महती उपहार सामग्री ग्रहण करते हैं। भक्तजनों पर आयी हुई घोर सन्ताप परम्परा का आप नाश करनेवाले हैं।।१।।
❑अर्थ➠ आपने सबके हृदयाकाश को व्याप्त कर रखा है। प्रणतजनों (दुखियों) को आप मनोवांछित वर देनेवाले हैं। शरणागत भक्तों के पापरूपी महान् वन को जलाने के लिये दावानल (वन की अग्नि) स्वरूप हैं। अपने शरीर से भाँति-भाँति की लीलाएँ करते रहते हैं। आपका श्रीअंग परम सुन्दर हैं। आप कामदेव बाणों को सुखा देनेवाले हैं। हे धैर्यनिधे! आपकी जय हो।।२।।
❑अर्थ➠ आप मृत्यु आदि विकारों से सर्वथा रहित हैं तथा अपने चरणों में प्रणाम करनेवाले भक्तजनों को भी मृत्यु आदि विकारों से रहित कर देते हैं। पुण्यात्मा पुरुषों का मनोरथ पूर्ण करते हैं और सर्पों को आभूषणरूप में धारण करते हैं। आपका वामांगभाग गिरिराज नन्दिनी उमा से व्याप्त हैं। आपने सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है।।३।।
❑अर्थ➠ तीनों लोक आपके ही स्वरूप हैं, फिर भी आप इन सभी रूपों से परे हैं। आपकी दृष्टि बड़ी सुन्दर है। आप अपने नेत्रों के खोलने-मींचने से जगत् की सृष्टि (रचना) और प्रलय करनेवाले हैं। आपने ही अग्निदेव को प्रकट किया है। जगत् को उत्पन्न करनेवाले भूतनाथ! एकमात्र आप ही प्रमथगणों के पालक और स्वामी हैं। अपनी शरण में आये हुए पतितजनों पर भी आप अपना वरद हस्त फैलाते रहते हैं।।४।।
❑अर्थ➠ आप सम्पूर्ण भूतल में फैले हुए आवरण का निवारण करनेवाले तथा प्रणव (ॐकार) नादरूपी सुधा धौलिगृह में निवास करनेवाले हैं। आपने चन्द्रमा को अपने ललाट में धारण कर रखा है। गिरिराजकुमारी पार्वती के द्वारा सर्वथा सन्तुष्ट रहनेवाले शिव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।।५।।
❑अर्थ➠ हे शिव! देव! गिरीश! महेश! विभो! आप विभव (धन सम्पत्ति आदि) प्रदान करनेवाले और कैलाश पर्वत पर शयन करनेवाले हैं। पार्वतीवल्लभ! आप सबको सुख देनेवाले हैं। हे चन्द्रधर! आप भक्ति का विघात करनेवाले दुष्टों को कठोर दण्ड देनेवाले हैं। तीनों लोकों को सुखी बनाइये।।६।।
❑अर्थ➠ सबकी पीड़ा हरनेवाले महादेव! मैं काल से भी नहीं डरता। हे अमोघमते! आप शीघ्र मेरी पापराशि का विनाश कीजिये। शिव चरणारविन्दों में नमस्कार करने के सिवा दूसरी किसी विचारधारा को मैं जीवों के लिये कल्याणकारी नहीं मानता, अत: आपके चरणों में ही मस्तक झुकाता हूँ।।७।।
❑अर्थ➠ इस सम्पूर्ण विशाल जगत् में भगवान् शिव को सन्तुष्ट करना ही सब पापों का नाश करनेवाला तथा परम गुणकारी है। हे ईश! आप त्रिगुणमय प्रपंच से अतीत, नागराज वासुकि का महान् कंगन धारण करनेवाले तथा प्रलयकाल में सबका विनाश करनेवाले हैं, अत: मैं आपको नमस्कार करता हूँ।।८।।
❑अर्थ➠ इस प्रकार महादेव की स्तुति करके बृहस्पति जी मौन हो गये। इस स्तुति से सन्तुष्ट होकर महादेव ने बहुत-से वर प्रदान करते हुए कहा─ ‘अहो ब्रह्मन्! तुमने बृहत् तप किया है, इसलिये बृहत् अर्थात् बड़े-बड़े देवताओं के पति (पालक) बने रहो। तुम ग्रहों में बृहस्पति नाम से पूजित होओ।।९-१०।।
❑अर्थ➠ जो पुरुष इस स्तोत्र का तीन वर्षों तक तीनों समय पाठमात्र भी करेगा, उसके प्रति सरस्वती उदित और उसकी वाणी परिष्कृत (पवित्र) जायेगी।।११।।
❑अर्थ➠ मेरी सन्निधि में निरन्तर इस स्तोत्र पाठ से अविवेकीजनों की भी दुराचार में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।।१२।।
❑अर्थ➠ महेश्वर के इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य ग्रहजनित पीड़ा को प्राप्त नहीं होगा, इसलिये मेरे समीप इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये।।१३।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य प्रात:काल उठकर नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसकी महान्-से-महान् दारुण बाधा मैं हरण कर लूँगा।।१४।।
❑अर्थ➠ तुम्हारे द्वारा [ काशीमें ] स्थापित की हुई इस मूर्ति [ बृहस्पतीश्वर महादेव ] की प्रयत्नपर्वक पूजा करके इस स्तुति का पाठ करनेवाला मनोवांछित फल प्राप्त करेगा।।१५।।
इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के काशीखण्ड में महादेव स्तुति सम्पूर्ण हुई।
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