मृत्यु एक यात्रा है…
http://sugamgyaansangam की यह कहानी पढ़ने के बाद आप सत्य को स्वीकार कर लेंगे कि मृत्यु एक यात्रा है, अन्त नहीं!
द्वापरयुग और कलियुग के सन्धिकाल के समय की यह कथा है, जब राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनाते हुए शुकदेव महाराज को छः दिन बीत गए थे और तक्षक नाग के काटने से मृत्यु होने में मात्र एक दिन शेष रह गया था, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ था। अपने मृत्यु की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित की मनः स्थिति जानकर उन्हें एक कथा सुनानी आरम्भ की⚊
❝ राजन, बहुत समय पहले की बात है। एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर एक घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूँढते-ढूँढते रात हो गयी और भारी वर्षा भी होने लगी। वन में सिंह, व्याघ्र आदि जंगली पशु बोलने लगे। राजा भयभीत हो गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात बिताने के लिए आश्रय ढूँढ़ने लगा।
रात के समय में अँधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गन्दे बहेलिये की झोंपड़ी देखी। वह बहेलिया अधिक चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। वह छोटी-सी झोंपड़ी अन्धकार और दुर्गन्धयुक्त थी।
उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठक गया, लेकिन कोई दूसरा विकल्प उसके सामने नहीं था। राजा ने बहेलिये से उसकी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने के लिए प्रार्थना की। बहेलिये ने कहा कि आश्रय पाने के लोभ में राहगीर यहाँ भटकते-भटकते आ जाते हैं। मैं उन्हें ठहरने के लिये झोंपड़ी दे देता हूँ, लेकिन दूसरे दिन वे जाने को तैयार नहीं होते। इस झोंपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे इसे छोड़ना ही नहीं चाहते। इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं और अपना अधिकार जमाते हैं। मैं कई बार इस बखेड़े में पड़ चुका हूँ, इसलिए मैं अब किसी को भी यहाँ नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा।
राजा तो लाचार होकर उस झोंपड़ी में रहने के लिये प्रार्थना कर रहा था। वह मन-ही-मन बोला, इस झोपड़ी में कुछ पल बिताना भी असम्भव प्रतीत हो रहा है, भला इसमें मेरी आसक्ति क्यों होगी? मैं तो सुबह अपने राजभवन को चल दूँगा।
राजा ने बहेलिये से प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य छोड़कर चला जायेगा। राजा का कार्य तो बहुत बड़ा था, वहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आ गया, उसे केवल एक रात ही बितानी थी।
बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना किसी वाद-विवाद किए झोंपड़ी छोड़कर चले जाने की शर्त को फिर से दोहरा दिया। राजा ने सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी।
राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गयी कि सुबह उठा तो वही सब उसे प्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।वह बहेलिये से उसी झोंपड़ी में रहने के लिये प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया क्रोधित हो गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को वह जगह छोड़ना बड़ी मुश्किल का काम लगने लगा और दोनों के बीच उस झोपड़ी को लेकर विवाद खड़ा हो गया।❞
कथा को यहीं विराम देकर शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से पूछा⚊ “परीक्षित! बताओ, उस राजा का उस झोंपड़ी में हरदम रहने के लिए विवाद करना उचित था?”
राजा परीक्षित कुछ पल के लिये भूल गये कि कल उनकी मृत्यु होगी, वे उस राजा की मूर्खता पर हँसते हुए बोले⚊ “भगवन्, वह राजा कौन था, उसका नाम तो बताइये? वह तो महामूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गन्दी झोंपड़ी में अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। मुझे उसकी मूर्खता पर आश्चर्य होता है!”
श्री शुकदेवजी ने कहा⚊ “हे राजा परीक्षित! वह महामूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।”
राजा एक पल के लिये शुकदेवजी को देखने लगे।
शुकदेवजी ने कहा⚊ “हाँ राजन, इस मल-मूल की गठरी (शरीर) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आये हैं। फिर भी आप चिन्तित होकर मृत्यु से घबरा रहे हैं। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है?”
राजा परीक्षित को ज्ञान का बोध हुआ और वे बन्धन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गये।
वास्तव में यह हर मनुष्य के जीवन का सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन्! मुझे यहाँ (इस कोख) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया? (इसलिये पैदा होते ही रोने लगता है) फिर उस ‘गन्ध से भरी झोंपड़ी’ की तरह उसे यहाँ की ‘मोह-माया की गन्ध’ ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता। जबकि मृत्युरूपी बहेलिया उसे बार-बार याद दिलाता है कि यह तुम्हारी जगह नहीं है, तुम रास्ता भटक गये थे इसलिये एक रात यहाँ रुकने के लिये आये थे…
यह राजा परीक्षित की कथा है और मेरी भी तथा आपकी भी। इस संसाररूपी मोह-माया में फँसकर हम भूल गये हैं कि हम एक राजा हैं, जिसे आत्मसुख के साम्राज्य को फिर से खोजकर अपने राजमहल को वापस लौटना है।
मृत्यु एक यात्रा है, अन्त नहीं!