मृत्यु क्या है?

मृत्यु क्या है?

जिज्ञासा हर व्यक्ति भीतर होती है, जो प्रश्न बनकर उभरती है और सटीक उत्तर मिल जाने पर शान्त हो जाती है। मृत्यु के बारे अनेक जिज्ञासाएँ हमारे मन मेें उत्पन्न होती हैं, जैसे मृत्यु के समय क्या होता है? क्या आत्महत्या करने के बाद दुःखों का अन्त हो जाता है? ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर इस पोस्ट में आपको मिल जायेंगे; क्योंकि मृत्यु एक ऐसा सत्य है, जिसके बारे हर कोई जानना चाहता है।

कुछ नास्तिकवादी कहते हैं मरने के बाद कुछ नहीं होता है, यह सब कपोल-कल्पित बातें हेैं, किन्तु हिन्दू धर्म इस बात में विश्वास रखता है कि मृत्यु के बाद भी जीव का अस्तित्व रहता है, लोक-लोकान्तर में भी कर्म उसका पीछा नहीं छोड़ते। हम इसी बात को सत्य मानकर इस पोस्ट में स्वामी रामसुखदासजी से मृत्यु के सन्दर्भ में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर को जानेंगे। यह लेख गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब प्रश्नोत्तर मणिमाला पर आधारित है।

प्रश्न─ जैसे मृत्यु का समय निश्चित है, ऐसे ही मृत्यु के समय होनेवाला कष्ट भी क्या निश्चित है?
उत्तर─ नहीं, सब अपने पाप-पुण्य का फल भोगते हैं। किसी को पाप का फल भोगना हो तो उसको अधिक कष्ट होता है, परन्तु दुःख उसी को होता है, जिसके भीतर जीने की इच्छा है।

प्रश्न─ जीवन में जो पुण्यात्मा रहे, साधन-भजन करनेवाले रहे, वे भी अन्त समय में कष्ट पायें तो क्या कारण है?
उत्तर─ भगवान उनके पूर्व जन्मों के सब पापों को नष्ट करके शुद्ध करना चाहते हैं, जिससे उनका कल्याण हो जाये।

प्रश्न─ शास्त्र में आया है कि मृत्यु के समय मनुष्य को हज़ारों बिच्छू काटने के समान कष्ट होता है, पर सन्तों की वाणी में आया है कि मृत्यु से कष्ट नहीं होता, प्रत्युत जीने की इच्छा से कष्ट होता है। वास्तव में क्या बात है?
उत्तर─ जैसे बालक से जवान और जवान से बूढ़ा होने में कोई कष्ट नहीं होता, ऐसे ही मृत्यु के समय भी वास्तव में कोई कष्ट नहीं होता।

[ देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति।। (गीता २। १३)
‘देहधारी के इस मनुष्य शरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती हैं, ऐसे ही दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।’
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।। (मानस, किष्किं० १०) ]

कष्ट उसी को होता है, जिसमें यह इच्छा है कि मैं जीता रहूँ। तात्पर्य है कि जिसका शरीर में मोह है, उसी को मृत्यु के समय हजारों बिच्छू एक साथ काटने के समान कष्ट होता है। शरीर में जितना मोह, आसक्ति, ममता होगी तथा जीने की इच्छा जितनी अधिक होगी, उतना ही शरीर छूटने पर अधिक दुःख होगा।

प्रश्न─ किसी की मृत्यु का शोक जितना यहाँ (भारत में) किया जाता है, उतना विदेशों में नहीं किया जाता तो क्या यहाँ के लोगों में मोह ज़्यादा है?
उत्तर─ यह बात नहीं है। जहाँ व्यक्तिगत मोह ज़्यादा होता है, वहाँ शोक कम होता है। व्यक्तिगत मोह में अज्ञता (अज्ञानता), मूढ़ता ज़्यादा होती है। व्यक्तिगत मोह पशुता है। बंदरिया को अपने बच्चे से इतना मोह होता है कि मरे हुए बच्चे को भी साथ लिये घूमती है, पर खाते समय यदि बच्चा पास में आ जाय तो ऐसे घुड़की देती है कि वह चीं-चीं करते हुए भाग जाता है!

दूसरे की मृत्यु पर शोक न होने का कारण है कि मोह बहुत संकुचित और पतन करनेवाला हो गया। व्यापक मोह तो मिट सकता है, पर संकुचित (व्यक्तिगत) मोह जल्दी नहीं मिटता। व्यक्तिगत मोह दृढ़ होता है- ‘जिमि अबिबेकी पुरुष शरीर’ (मानस, अयोध्या १४२ । १)
ज्यों-ज्यों मोह छूटता है, त्यों-त्यों मनुष्य की स्थिति व्यापक होती है।
[ अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। (पंचतंत्र, अपरीक्षित, ३८)
“यह अपना है और यह पराया-इस प्रकार का विचार संकुचित भावना के व्यक्ति करते हैं। उदार भाववाले व्यक्तियों के लिये तो सम्पूर्ण विश्व ही अपने कुटुम्ब के समान है।’ ]

तात्पर्य है कि मोह जितना व्यापक होता है, उतना ही वह घटता है। जैसे, पहले अपने शरीर में मोह होता है, फिर कुटुम्ब में मोह होता है, फिर जाति में मोह होता है, फिर मोहल्ले में मोह होता है, फिर गाँव में मोह होता है, फिर प्रांत में मोह होता हैं, फिर देश में मोह होता है, फिर मनुष्य मात्र में मोह होता है, फिर जीवमात्र मोह होता है। अन्त में किसी में भी मोह नहीं रहता। यह सिद्धान्त है कि किसी से मोह नहीं होता तो सब में मोह होता है और सब में मोह होता है तो किसी से मोह नहीं होता। व्यापक मोह वास्तव में मोह नहीं है, प्रत्युत आत्मीयता है।

प्रश्न─ शास्त्र में आया है कि धर्मराज के पास जाने में मृतात्मा को एक वर्ष का समय लगता है। क्या यह सबके लिये है?
उत्तर─ यह सबके लिये नहीं है, प्रत्युत उनके लिये है, जो अत्यन्त पापी हैं। उनके लिये धर्मराज के पास जाने का मार्ग भी बड़ा होता है। मृत्यु के बाद अपने-अपने कर्मों के अनुसार गति होती है। भगवान के भक्त धर्मराज के पास नहीं जाते।

प्रश्न─ अन्तकाल में न भगवान का चिन्तन हो, न संसार का तो क्या गति होगी?
उत्तरप─ ऐसा सम्भव नहीं है। कुछ-न-कुछ चिन्तन तो होगा ही
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। (गीता ३। ५)
कोई भी (मनुष्य) किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता।

प्रश्न─ अन्त समय में भगवान की याद आये─ इसके लिये क्या करें?
उत्तर─ हर समय भगवान का स्मरण करें; क्योंकि हर समय ही अन्तकाल है। मृत्यु कब आ जाय, इसका क्या पता! इसलिये भगवान् ने गीता में कहा है─ ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च’ (८। ७) ‘इसलिये तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’

प्रश्न─ मनुष्य जिस-जिसका चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है, यह नियम क्या आत्महत्या करनवाले भी लागू होता है?
उत्तर─ हाँ, लागू होता है। परन्तु उसके द्वारा भगवान् का (शुभ चिन्तन) होना बहुत कठिन है। कारण कि वह दुःखी होकर आत्महत्या करता है और इसका उद्देश्य सुख का रहता है।
दूसरी बात, प्राण निकलते समय उसको अपने कियेपर बड़ा पश्चात्ताप होता है, पर वह कुछ कर सकता नहीं!
तीसरी बात, प्राण निकलते समय उसको भयंकर कष्ट होता है।
चौथी बात, अगर उसका भाव शुद्ध हो, भगवान पर विश्वास हो, वह भगवान का चिंतन करना चाहता हो तो वह आत्महत्या-रूप महापाप करेगा ही क्यों? बुद्धि अशुद्ध होने पर ही मनुष्य आत्महत्या करता है। इसलिये आत्महत्या करनेवाले की दुर्गति होती है।
[अन्धं तमो विशेयुस्ते ये चैवात्महनो जनाः।
भुक्त्वा निरयसाहस्रं ते च स्युर्ग्रामसूकराः।।
आत्मघातो न कर्तव्यस्तस्मात् क्वापि विपिश्चिता।
इहपि न परत्रापि न शुभान्यात्मघातिनाम्।। (स्कन्दपुराण, काशी १२/१३)
आत्महत्यारे लोग घोर नरक में जाते हैं और हज़ारों नरक यातनाएँ भोगकर फिर देहाती सूअर की योनि में जन्म लेते है। इसलिये समझदार मनुष्य को कभी भूलकर भी अात्महत्या नहीं करनी चाहिये। आत्मघातियो का न इस लोक में, न परलोक में कल्याण होता है। ]