यदा यदा हि धर्मस्य…
यह श्लोक हमने कई बार सुना होगा। इसका अर्थ क्या है? आज हम जानेंगे। यह श्रीमद्भवद्गीता के चौथे अध्याय का सातवाँ और आठवाँ श्लोक है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
इसका शब्दार्थ इस प्रकार है:-
यदा यदा = जब-जब
हि = ही
धर्मस्य = धर्म की
ग्लानि: = हानि (और)
भवति = होती है
भारत = हे भरतवंशी अर्जुन!
अभ्युत्थानम् = वृद्धि
अधर्मस्य = अधर्म की
तदा = तब-तब
आत्मानम् = अपने-आपको
सृजामि = (साकार रूप से) प्रकट करता हूँ
अहम् = मैं
पूर्व श्लोक में अपने अवतार के अवसर का वर्णन करके अब भगवान् अपने अवतार का प्रयोजन बताते हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥८॥
इसका शब्दार्थ इस प्रकार है:-
परित्राणाय = रक्षा करने के लिये
साधूनाम् = साधुओं (भक्तों) की
विनाशाय = विनाश करने के लिये
च = और
दुष्कृताम् = पाप कर्म करनेवालों का
धर्मसंस्थापनार्थाय = धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिये
सम्भवामि = (मैं ) प्रकट हुआ करता हूँ
युगे युगे = युग-युग में
इन दोनों श्लोकों सम्पूर्ण अर्थ इस प्रकार होगा।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि (और) अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने-आपको (साकार रूप से) प्रकट करता हूँ। साधुओं (भक्तों) की रक्षा करने के लिये, पापकर्म करनेवालों का विनाश करने के लिये और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
चौथे अध्याय के नौवें श्लोक में भगवान कहते हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, अपितु मुझे प्राप्त होता है।
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