रात्रि सूक्त का पाठ
ईश्वर के जगत् रूप व्यवहार का जब लोप होता है, उसे कालरात्रि या महाप्रलयरात्रि कहते हैं। उस समय केवल ब्रह्म और उनकी महाशक्ति, जिसे अव्यक्त प्रकृति कहते हैं, शेष रहती है। इसकी अधिष्ठात्रीदेवी ‘भुवनेश्वरी’ हैं। रात्रिसूक्तं में उन्हीं का स्तवन होता है।
दुर्गासप्तशती में दो रात्रिसूक्तम् हैं। एक वेदोक्त और एक तन्त्रोक्त! तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त ब्रह्माजी के श्रीमुख से निःसृत है।
इस पोेस्ट में वेदोक्त रात्रिसूक्तम्, जिसमें गायत्री छन्द पर आधारित आठ श्लोक हैं, उसका हिन्दी में अर्थ जानेंगे। रात्रि को सामान्यतः तमस् अन्धकार माना जाता है, परन्तु सनातन धर्म में सर्वं खल्विदं ब्रह्म अर्थ सब कुछ ब्रह्ममय (ईश्वरमय) है। अतः रात्रिमय भुवनेश्वरी की स्तुति ईश्वर की ही स्तुति है, जिसका पाठ या श्रवण शत्रु का नाशक, पाप-ताप निवारक, ज्ञान तथा मोक्षदायक है।
इसके पाठ से माता भुवनेश्वरी की करुणा-कृपा साधकों पर बनी रहती है। अनिद्रा के रोग में इसका पाठ अतिप्रभावशाली माना जाता है; क्योंकि रात्रि निद्रा की देवी मानी जाती हैं। रात्रि देवी की गोद में सृष्टि के समस्त जीव विश्राम करते हैं।
॥अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्॥
विनियोग
❑➧ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।
❍ ॐ रात्रीत्याद् यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर् देवता, गायत्री छन्दः, देवी माहात्म्य पाठे विनियोगः।
❑➧ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित।।१।।
❍ ॐ रात्री व्यख्य-दायती
पुरुत्रा देव्य-क्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित।।१।।
❑अर्थ➠महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत् के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूपसे देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती हैं।।१।।
❑➧ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः।।२।।
❍ ओर्वप्रा-अमर्त्या
निवतो देव्युद्-वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः।।२।।
❑अर्थ➠ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलनेवाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़नेवाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देती हैं।।२।।
❑➧निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः।।३।।
❍ निरु स्वसार मस्कृतो-
षसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः।।३।।
❑अर्थ➠परा चिच्छक्तिरूपा रात्रि देवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्या मयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वत: नष्ट हो जाता है।।३।।
❑➧सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः।।४।।
❍ सा नो अद्य यस्या वयं
नि ते यामन्न-विक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः।।४।।
❑अर्थ➠वे रात्रि देवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं।।४।।
❑➧नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिनः।।५।।
❍ नि ग्रामासो अविक्षत
नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येना-सश्चि-दर्थिनः।।५।।
❑अर्थ➠उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक (गोद) में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलनेवाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करनेवाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं।।५।।
❑➧यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव।।६।।
❍ यावया वृक्यं वृकं
यवय स्तेन मूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव।।६।।
❑अर्थ➠हे रात्रिमयी चिच्छक्ति (चेतन शक्ति)! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक (भेड़िये) को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ, मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।।६।।
❑➧उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय।।७।।
❍ उप मा पेपिशत्तमः
कृष्णं व्यक्तम-स्थित।
उष ऋणेव यातय।।७।।
❑अर्थ➠हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी ! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो- जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो।।७।।
❑➧उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे।।८।।
❍ उप ते गा इवाकरं
वृणीष्व दुहि-तर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे।।८।।
❑अर्थ➠हे रात्रिदेवी! तुम दूध देनेवाली गौके समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। परम व्योमस्वरूप (आकाश स्वरूप) परमात्मा की पुत्री ! तुम्हारी कृपासे मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम (यज्ञ) की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।।८।।
।।इति ऋग्वेदोक्तं रात्रिसूक्तं समाप्तं।।
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