विन्ध्येश्वरी स्तोत्रम्
आद्यशक्ति माता के अनेक रूप हैं, लेकिन हर रूप में उनका मातृत्व एक ही है। समय, देश, स्थान के अनुरूप उनसे अनेक कथाएँ जुड़ी हैं। श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद भगवती विंध्याचल पर्वत पर चली गयीं। तब से उन्हें विन्ध्यवासिनी कहा जाने लगा। सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशिष से हुआ।
माँ विन्ध्येश्वरी देवी का यह स्तोत्र गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब देवी स्तोत्र रत्नाकर पर आधारित है। यह संकलित स्तोत्र है अतः इसके रचयिता कौन हैं यह तो ज्ञात नहीं, परन्तु पंचचामर छन्द पर आधारित यह स्तोत्र बड़ा सुन्दर और सरल है। जिस प्रकार शिव ताण्डव स्तोत्र पाठ किया जाता है, उसी प्रवाह में इसका भी पठन किया जा सकता है। अर्थ देने के साथ ही इस स्तोत्र का JPG image भी पाेस्ट के अन्त में उपलब्ध है।
श्री विन्ध्येश्वरी स्तोत्रम्
❑➧ निशुम्भशुम्भमर्दिनीं प्रचण्डमुण्डखण्डिनीम्।
वने रणे प्रकाशिनीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।१।।
❍ निशुम्भ-शुम्भ-मर्दिनीं प्रचण्ड-मुण्ड-खण्डिनीम्।
वने रणे प्रकाशिनीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।१।।
❑➧ त्रिशूलरत्नधारिणीं धराविघातहारिणीम्।
गृहे गृहे निवासिनीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।२।।
❍ त्रिशूल-रत्न-धारिणीं धरा-विघात-हारिणीम्।
गृहे गृहे निवासिनीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।२।।
❑➧ दरिद्रदुःखहारिणीं सतां विभूतिकारिणीम्।
वियोगशोकहारिणीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।३।।
❍ दरिद्र-दुःख-हारिणीं सतां विभूति-कारिणीम्।
वियोग-शोक-हारिणीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।३।।
❑➧ लसत्सुलोललोचनां लतां सदावरप्रदाम्।
कपालशूलधारिणीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।४।।
❍ लसत्-सुलोल-लोचनां लतां सदा-वर-प्रदाम्।
कपाल-शूल-धारिणीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।४।।
❑➧ करे मुदा गदाधरां शिवां शिवप्रदायिनीम्।
वरावराननां शुभां भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।५।।
❍ करे मुदा गदाधरां शिवां शिव-प्रदायिनीम्।
वरा-वराननां शुभां भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।५।।
❑➧ ऋषीन्द्रजामिनप्रदां त्रिधास्यरूपधारिणीम्।
जले स्थले निवासिनीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।६।।
❍ ऋषीन्द्र-जामिन-प्रदां त्रिधास्य-रूप-धारिणीम्।
जले स्थले निवासिनीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।६।।
❑➧ विशिष्टसृष्टिकारिणीं विशालरूपधारिणीम्।
महोदरां विशालिनीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।७।।
❍ विशिष्ट-सृष्टि-कारिणीं विशाल-रूप-धारिणीम्।
महोदरां विशालिनीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।७।।
❑➧ पुरन्दरादिसेवितां मुरादिवंशखण्डिनीम्।
विशुद्धबुद्धिकारिणीं भजामि विन्ध्यवासिनीम्।।८।।
❍ पुरन्दरादि-सेवितां मुरादि-वंश-खण्डिनीम्।
विशुद्ध-बुद्धि-कारिणीं भजामि विन्ध्य-वासिनीम्।।८।।
।।इति श्रीविन्ध्येश्वरीस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
हिन्दी अर्थ
❑अर्थ➠ शुम्भ तथा निशुम्भ का संहार करनेवाली, चण्ड तथा मुण्ड का विनाश करनेवाली, वन में तथा युद्ध स्थल में पराक्रम प्रदर्शित करनेवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।१।।
❑अर्थ➠ त्रिशूल तथा रत्न धारण करनेवाली, पृथ्वी का संकट हरनेवाली और घर-घर में निवास करनेवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।२।।
❑अर्थ➠ दरिद्रजनों का दुःख दूर करनेवाली, सज्जनों का कल्याण करनेवाली और वियोगजनित शोक का हरण करनेवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।३।।
❑अर्थ➠ सुन्दर तथा चंचल नेत्रों से सुशोभित होनेवाली, सुकुमार नारी-विग्रह से शोभा पानेवाली, सदा वर प्रदान करनेवाली और कपाल तथा शूल धारण करनेवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।४।।
❑अर्थ➠ प्रसन्नतापूर्वक हाथ में गदा धारण करनेवाली, कल्याणमयी, सर्वविध मंगल प्रदान करनेवाली तथा सुरूप-कुरूप सभी रूपों में व्याप्त परम शुभस्वरूपा भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।५।।
❑अर्थ➠ ऋषिश्रेष्ठ के यहाँ पुत्री रूप से प्रकट होनेवाली, ज्ञानालोक (ज्ञान का प्रकाश) प्रदान करनेवाली; महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती रूप से तीन स्वरूपों को धारण करनेवाली और जल तथा स्थल में निवास करनेवाली भगवती विंध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।६।।
❑अर्थ➠ विशिष्टता की सृष्टि करनेवाली, विशाल स्वरूप धारण करनेवाली, महान् उदर से सम्पन्न तथा व्यापक विग्रहवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।७।।
❑अर्थ➠ इन्द्र आदि देवताओं से सेवित, मुर आदि राक्षसों के वंश का नाश करनेवाली तथा अत्यन्त निर्मल बुद्धि प्रदान करनेवाली भगवती विन्ध्यवासिनी की मैं आराधना करता हूँ।।८।।
इस प्रकार श्री विन्ध्येश्वरी स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।