शाकाहार अपनायें
[ इस लेख का उद्देश्य किसी का अपमान करना नहीं है। इसे पढ़कर मनुष्य शाकाहारी बने सुगम ज्ञान संगम ये आशा अवश्य करता है। ]
एक सत्य
हर मांसाहारी जानता है कि मांस खाना पाप है, बुरी बात है। केवल जीभ को स्वाद देने के लिये इस सत्य को भूल जाता है।
जो व्यक्ति मांसाहारी है। वह भले ही बुद्धिमान हो, लेकिन अज्ञान के अन्धकार से अपने जीवन को पाप से डूबो लेता है। वह तर्क देकर भले जीत जाये कि मांस खाने से कुछ नहीं होता, यह तो आहार है। लेकिन सच तो यह कि उसने अपनी आत्मा की बात कभी सुनी नहीं; क्योंकि उसके मन पर स्वादरूपी अज्ञान की परत चढ़ी होती है, जिस परत को वह तोड़ना नहीं चाहता।
तनिक सोचकर देखो, हमारे शरीर पर थोड़ी-सी चोट लगने पर हमारी क्या दशा होती है? और हम बेज़ुबान पशुओं गर्दन पर छूरी चलाकर, उनके प्राण हर लेते हैं, केवल उनका मांस खाने के लिये?
क्या हम मनुष्य जन्म पाने के बाद पशु बनने की तैयारी नहीं कर रहे हैं? कर रहे हैं।
क्योंकि मानव शरीर मांस खाने के लिये नहीं है। प्राकृतिक रूप से देखें तो मांस खाना मनुष्य के शरीर के अनुकूल नहीं है और ना ही मांस खाने के लिये मनुष्य शरीर बना है।
मांस खानेवाले प्राणी पानी चाटकर पीते हैं। उदाहरण─ शेर, कुत्ता, बिल्ली, गीदड़ आदि। शाकाहारी सोखकर पानी पीते हैं। उदाहरण─ गाय, भैंस, बकरी आदि।
मांस खानेवाले प्राणियों की आँत एक-डेढ़ मीटर की होती है। शाकाहारी प्राणियों की आँत पाँच से छः मीटर की होती है।
जो व्यक्ति मांस खाता है, वह केवल स्वाद की ख़ातिर अपना लोक-परलोक दोनों ही बिगाड़ता रहता है। अपने पेट को श्मशान समझता है। भले ही वह किसी भी जाति-धर्म का हो, लेकिन मानव रूप में दानव से कम नहीं। बस, दानव कच्चा मांस खाते हैं, वह पकाकर खाता है।
जो डॉक्टर भी रोगियों को मांसाहार की सलाह देते हैं, वे नासमझी के शिकार हैं। वे भी जानते हैं कि मानव शरीर के लिये शाकाहार सर्वोत्तम आहार है। लेकिन वे ख़ुद स्वाद के लालची है
उनकी दशा ऐसी है ─
गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेंलें दाँव।
दोनों मूरख डूबि गये, चढ़ी पाथर की नाव।।
देखा गया है कि कुछ डॉक्टर दूध के साथ मुर्गी का अण्डा खाने के लिये कहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार मांस आदि के साथ दूध पीना शरीर के लिये अत्यन्त हानिकारक है, उस व्यक्ति को त्वचा की बीमारी (कोढ़) हो सकती है।
यहाँ तर्क दिया जा सकता है कि अण्डा निर्जीव है। तनिक सोचो, अण्डा यदि निर्जीव होता है तो उसमें से मुर्गी-मुर्गा कहाँ से आते? इसमें तो मुर्गी-मुर्गा का रज-वीर्य होता है, इसलिये उसमें इतनी बदबू होती है। जिस प्रकार मनुष्य के रज-वीर्य में बदबू होती है। सोचकर देखो, अण्डा कितनी गन्दी चीज़ है?
अब यह अलग बात है कि उस बदबू को नज़र अन्दाज़ करके स्वाद की लोलुपता में मनुष्य उसे खाता है।
यहाँ भी तर्क दिया जा सकता है कि वह शाकाहारियों के लिये बदबू है, मांसाहारियों के लिये ख़ुश्बू है।
बिल्कुल!
इन सबके पीछे मन आधार होता है। हम जिस मल का सुबह-सुबह त्याग करते हैं, उसे खाने की सोच भी नहीं सकते, लेकिन वही मल सुअर का सबसे प्रिय भोजन होता है, क्योंकि उसके मन में उसी की प्रियता समाई है। प्रकृति ने वही खाने के लिये उस जीव को सुअर की योनि में जन्म दिया है। क्योंकि किसी जन्म में वह सुअर (जीव) भी मनुष्य बना होगा। परन्तु मनुष्य बनने के बाद भी वह पशुओं की भाँति जी रहा होगा तो प्रकृति द्वारा उसे उसकी रुचि अनुसार जन्म मिला ताकि उसकी वासनाओं की पूर्ति हो।
एक शास्त्रीय बात है, मनुष्य शरीर को छोड़कर जितनी योनियाँ है, वे भोग-योनि है अर्थात् जीव भोग भोगकर मनुष्य-योनि तक पहुँचता है; क्योंकि मनुष्य कर्म-योनि है। इस योनि में कर्म की प्रधानता है।
इसी योनि में अपने विवेक को महत्त्व देकर मोक्ष को भी प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् जन्मों का अन्त किया जा सकता है। और अविवेकी बनने चौरासी लाख योनि की तैयारी भी हो सकती है
जो सम्भावनाएँ मनुष्य-योनि में है, वह अन्य किसी योनि में नहीं। फिर वह देव-योनि ही क्यों न हो? क्योंकि पुण्य भोग ख़त्म होने पर देवताओं को भी मनुष्य जन्म लेकर पुण्य कर्म करने पड़ते है।
पाप-पुण्य के चक्र से ईश्वर भी नहीं बचते हैं तो मांसाहारियों की क्या कहें?
मांसाहारियों के मन में…
मांसाहारियों के मन में, कैसा अज्ञान समाया है।
पाप करें और शान से बोलें, मानुष तन मैंने पाया है।।
शाक-पात से जी न भरा, तो ले लेते पशुओं के प्रान।
नोंच-नोंचकर खाते हैं, जीते-जी बनकर शैतान।।
स्वाद की ख़ातिर कितना, नीच बन गया है इन्सान।
मांस पशु का खाकर भी, ख़ुद को समझे बुद्धिमान।।
मांस खानेवाले कहते हैं, हम पाप कहाँ करते हैं।
बेचनेवाले कहते हैं, हम पेट की ख़ातिर करते हैं।।
तर्कवादी कह देते हैं, प्रारब्ध पशु का ऐसा है।
अपने गर्दन पर चले छूरी, तब समझे क्या कैसा है।।
हिन्दू हो चाहे मुस्लिम हो, जो मांस पशु का खाते हैं।
वे मानव रूप में दानव हैं, जीवन भर पाप कमाते हैं।।
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