शिव अथर्वशीर्ष अर्थ
शिवाथर्वशीर्षम् पाँच अथर्वशीर्ष में सबसे बड़ा है। शिव उपासना में इसका विशेष महत्त्व है। इसमें बड़े-बड़े कुल सात अनुच्छेद है।
आइये,
https://sugamgyaansangam.com के इस पोस्ट में इसका हिन्दी अर्थ में अर्थ जानते हैं। अधिक बड़ा होने के कारण केवल अर्थ दिया जा रहा है।
मूलपाठ के लिये क्लिक करें ☟
https://sugamgyaansangam.com/शिव-अथर्वशीर्ष/अध्यात्म/स्तोत्र-संग्रह/
शिव अथर्वशीर्ष का हिन्दी अर्थ
एक समय देवगण घूमते-घूमते स्वर्गलोक में गये और वहाँ जाकर रुद्रसे पूछने लगे⼀ “आप कौन हैं?”
रुद्र भगवान् ने कहा⼀”मैं एक हूँ; मैं भूत, भविष्य और वर्तमान काल में हूँ, ऐसा कोई नहीं है जो मुझसे रहित हो। जो अत्यन्त गुप्त है, जो सभी दिशाओं में रहता है, वह मैं हूँ। मैं नित्य, अनित्यरूप, व्यक्तरूप, अव्यक्तरूप, ब्रह्मरूप अब्रह्मरूप, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा रूप, ऊर्ध्व और अपरूप, दिशा, प्रतिदिशा, पुमान्, अपुमान्, स्त्री, गायत्री, सावित्री, त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप् छन्द, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सत्य, गौ, गौरी, ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, जल, तेज, गुह्य, अरण्य, अक्षर, क्षर, पुष्कर, पवित्र, उग्र, मध्य, बाह्य, अग्रिम ⼀यह सब तथा ज्योतिरूप मैं ही हूँ। मुझको सबमें रमा हुआ जानो। जो मुझको जानता है, वह सब देवों को जानता है और अंगोंसहित सब वेदों को भी जानता है। मैं अपने तेज से ब्रह्म को ब्राह्मण से, गौ को गौ से, ब्राह्मण को ब्राह्मण से, हविष्य को हविष्य से, आयुष्य को आयुष्य से, सत्य को सत्य से और धर्म को धर्म से तृप्त करता हूँ।”
वे देव रुद्र से पूछने लगे, रुद्र को देखने लगे और उनका ध्यान करने लगे, फिर उन देवों ने हाथ ऊँचे करके इस प्रकार स्तुति की। ⟦१⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही ब्रह्मा हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विष्णु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्कन्द हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।३।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही इन्द्र हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।४।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अग्नि हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।५।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही वायु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।६।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूर्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।७।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सोम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।८।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अष्टग्रह हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।९।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं औरवेही अष्टप्रतिग्रह हैं, उन्हें बार-बारनमस्कार है।।१०।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भूः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।११।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भुवः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१२।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्वः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१३।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही महः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१४।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही पृथिवी हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१५।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अन्तरिक्ष हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१६।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही द्यौ हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१७।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वेही आप(जो) हैं, उन्हें बार-बारनमस्कार है।।१८।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही तेज हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।१९।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही काल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२०।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही यम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२१।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही मृत्यु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२२।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अमृत हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२३।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही आकाश हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२४।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विश्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२५।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्थूल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२६।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूक्ष्म हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२७।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही शुक्ल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।२८।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृष्ण हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।।२९।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृत्स्न (समग्र) हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।३०।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सत्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।३१।।
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सर्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।३२।। ⟦२⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
पृथ्वी आपका आदिरूप, भुवर्लोक आपका मध्यरूप और स्वर्गलोक आपका सिर रूप है। आप विश्वरूप केवल ब्रह्मरूप हो। दो प्रकारसे या तीन प्रकार से भासते हो। आप वृद्धिरूप, शान्ति रूप, पुष्टि रूप हुतरूप, अहुतरूप, दत्तरूप, अदत्तरूप, सर्वरूप, असर्वरूप, विश्व, अविश्व, कृत, अकृत, पर, अपर और परायणरूप हो। आपने हमको अमृत पिलाकर अमृतरूप किया, हम ज्योतिभाव को प्राप्त हुए और हमको ज्ञान प्राप्त हुआ। अब शत्रु हमारा क्या कर सकेंगे? हमको वे पीड़ा नहीं दे सकेंगे, आप मनुष्य के लिये अमृतरूप हो, चन्द्र-सूर्य से प्रथम और सूक्ष्म पुरुष हो। जो यह अक्षर और अमृत रूप प्रजापति का सूक्ष्म रूप है, वही जगत् का कल्याण करनेवाला पुरुष है। वही अपने तेजद्वारा ग्राह्य वस्तु को अग्राह्य वस्तु से, भाव को भाव से, सौम्य को सौम्य से, सूक्ष्म को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रास करता है। ऐसे महाग्रास करनेवाले आपको बार-बार नमस्कार है। सबके हृदय में देवताओं का, प्राणों का तथा उनके वास है। जो नित्य तीन मात्राएँ हैं, आप उनके परे हो। उत्तर में उसका मस्तक है, दक्षिण में पाद है, जो उत्तर में है; वही ॐकाररूप है, जो ॐकार है; वही प्रणवरूप है, जो प्रणव है; वही सर्वव्यापीरूप है। जो सर्वव्यापी है; वही अनन्तरूप है, जो अनन्तरूप है; वही ताररूप है, जो ताररूप है; वही शुक्लरूप है, जो शुक्लरूप है; वही सूक्ष्मरूप और जो सूक्ष्मरूप है; वही विद्युत्-रूप है, जो विद्युत्-रूप है; वही परब्रह्म रूप है, जब परब्रह्म रूप है; वही एकरूप है, जो एकरूप है; वही रुद्ररूप है, जो रुद्ररूप है; वही ईशानरूप है, जो ईशानरूप है; वही भगवान् महेश्वर है। ⟦३⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
ॐकार इस कारण है कि ॐकार का उच्चारण करने के समय प्राण ऊपर खींचने पड़ते हैं, इसलिये आप ॐकार कहे जाते हैं। प्रणव कहने का कारण यह है कि इस प्रणव के उच्चारण करते समय ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस और ब्राह्मण ब्राह्मण को नमस्कार करने आते हैं, इसलिये प्रणव नाम है। सर्वव्यापी कहने का कारण यह है कि इसके उच्चारण करते समय जैसे तिलों में तेल व्यापक होकर रहता है, वैसे आप सब लोकों में व्यापक हो रहे हैं अर्थात् शान्तरूप से आप सबमें ओत-प्रोत हैं, इसलिये आप सर्वव्यापी कहलाते हैं। अनन्त कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते समय ऊपर, नीचे और अगल-बगल कहीं भी आपका अन्त देखने में नहीं आता, इसलिये आप अनन्त कहलाते हो। तारक कहने का कारण यह है कि उच्चारण के समय पर गर्भ, जन्म, व्याधि, जरा और मरणवाले संसार के महाभय से तारने और रक्षा करनेवाले हैं, इसलिये इनको तारक कहते हैं। शुक्ल कहने का कारण यह है कि (रुद्र शब्द के) उच्चारण करनेमात्र से व्याकुलता तथा शान्ति होती है। सूक्ष्म कहने का कारण यह है कि उच्चारण करने में सूक्ष्म रूपवाले होकर स्थावरादि सब शरीरों में प्रतिष्ठित रहते हैं तथा शरीर के सभी अंगों में व्याप्त रहते हैं। वैद्युत कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते ही महान् अज्ञानान्धकाररूप शरीर को प्रकाशित करते हैं, इसलिये वैद्युतरूप कहा है। परम ब्रह्म कहने का कारण यह है कि पर, अपर और परायण का अधिकाधिक विस्तार करते हो, इसलिये आपको परम ब्रह्म कहते हैं। एक कहने का कारण यह है कि सब प्राणों का भक्षण करके अजरूप होकर उत्पत्ति और संहार करते हैं। कोई पुण्य तीर्थ में जाते हैं, कोई दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्व दिशा में तीर्थाटन करते हैं, उन सबकी यही संगति है। सब प्राणियों के साथ में एक रूप से रहते हो, इसलिये आपको एक कहते हैं। आपको रुद्र क्यों कहते हैं? क्योंकि ऋषियों को आपका दिव्य रूप प्राप्त हो सकता है, सामान्य भक्तों को आपका वह रूप सहज प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये आपको रुद्र कहते हैं। ईशान कहने का कारण यह है कि सब देवताओं का ईशानी और जननी नाम की शक्तियों से आप नियमन करते हो। हे शूर! जैसे दूध के लिये गाय को रिझाते हैं, वैसे ही आपकी हम स्तुति करते हैं। आप ही इन्द्ररूप होकर इस जगत् के ईश और दिव्य दृष्टिवाले हो, इसलिये आपको ईशान कहते हैं। आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं, इसका कारण यह है कि आप भक्तों को ज्ञान से युक्त करते हो, उनके ऊपर अनुग्रह करते हो तथा उनके लिये वाणी का प्रादुर्भाव और तिरोभाव करते हो तथा सब भावों को त्यागकर आप आत्मज्ञान से तथा योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में विराजते हो, इसलिये आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं। ऐसा यह रुद्रचरित है। ⟦४⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
यही देव सब दिशाओं में रहता है। प्रथम जन्म उसी का है, मध्य में तथा अन्त में वही है, वही उत्पन्न होता है और होगा। प्रत्येक व्यक्तिभाव में वही व्याप्त हो रहा है। एक रुद्र ही किसी अन्य की अपेक्षा न रखते हुए अपनी महाशक्तियों से इस लोक को नियम में रखता है। सब उसमें रहते हैं और अन्त में सबका संकुचन उसी में होता है। विश्व को प्रकट करनेवाला और रक्षण करनेवाला वही है। जो सब योनियों में व्याप रहा है और जिससे यह सब व्याप्त और चैतन्य हो रहा है; उस पूज्य, ईशान और वरद देव का चिन्तन करने से मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त करते हैं। क्षमा आदि हेतुसमूह के मूल का त्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि से रुद्र में अर्पित करने से रुद्र के साथ एकता को प्राप्त होता है। जो शाश्वत, पुरातन और अपने बल से प्राणियों को मृत्युपाश का नाश करनेवाला है, उसके साथ आत्मज्ञानप्रद अर्ध-चतुर्थ मात्रा से वह कर्म के बन्धन को तोड़ता हुआ परम शान्ति प्रदान करता है। आपकी प्रथम ब्रह्मायुक्त मात्रा रक्त वर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ब्रह्मा के पद को प्राप्त होते है। विष्णु देव युक्त आपकी दूसरी मात्रा कृष्णवर्णवाली है, जो उसका नृत्य ध्यान करते हैं, वे वैष्णव पद को प्राप्त होते हैं। आपकी ईशानदेवयुक्त जो तीसरी मात्रा है, वह पीले वर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ईशान यानी रुद्रलोक को प्राप्त होते हैं। अर्धचतुर्थ मात्रा, जो अव्यक्तरूपमें रहकर आकाश में विचरती है, उसका वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान है, जो उसका ध्यान करते हैं, उनको मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। मुनि कहते हैं कि इस चौथी मात्रा की ही उपासना करनी चाहिये। जो इसकी उपासना करता है, उसको कर्मबन्ध नहीं रहता। यही वह मार्ग है जिस उत्तरमार्ग से देव जाते हैं, जिससे पितृ जाते हैं और जिस उत्तरमार्ग से ऋषि जाते हैं; वही पर, अपर और परायण मार्ग है। जो बाल के अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप से हृदय में रहता है; जो विश्वरूप, देवरूप, सुन्दर और श्रेष्ठ है; जो विवेकी पुरुष हृदय में रहनेवाले इस परमात्मा को देखते हैं, उनको ही शान्तिभाव प्राप्त होता है, दूसरे को नहीं। क्रोध, तृष्णा, क्षमा और अक्षमा से विरत होकर हेतु समूह के मूलरूप अज्ञान का त्याग करके संचित कर्मो को बुद्धि से रुद्र में अर्पण कर देने से रुद्र में एकता को प्राप्त होते हैं। रुद्र ही शाश्वत और पुराणरूप होने से अपने तप और बल से रसादि सब प्राणि-पदार्थों का नियन्ता है। अग्नि, वायु, जल, स्थल और आकाश⼀ये सब भस्मरूप हैं। पशुपति की भस्म का जिसके अंग में स्पर्श नहीं होता, उसका मन और इन्द्रियाँ भस्मरूप यानी निरर्थक हैं, इसलिये पशुपति की ब्रह्मरूप भस्म पशु के बन्धन का नाश करनेवाली है। ⟦५⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
जो रुद्र अग्नि में है, जो रुद्र जल के भीतर है, उसी रुद्र ने औषधियों और वनस्पतियों में प्रवेश किया है। जिस रुद्र ने इस समस्त विश्व को उत्पन्न किया है, उस अग्निरूप रुद्र को नमस्कार है। जो रुद्र अग्नि में, जल के भीतर, औषधियों और वनस्पतियों में स्थित रहता है और जिस रुद्र ने इस समस्त विश्व को और भुवनों को उत्पन्न किया है, उस रुद्र को बार-बार नमस्कार है। जो रुद्र जल में, औषधियों में और वनस्पतियों में स्थित है, जिस रुद्र ने ऊर्ध्व जगत् को धारण कर रखा है, जो रुद्र शिवशक्तिरूप से और तीन गुणों से पृथ्वी को धारण करता है, जिसने अन्तरिक्ष में नागों को धारण किया है, उस रुद्र को बार-बार नमस्कार है। इस (भगवान् रुद्र)⼀के प्रणवरूप मस्तक की उपासना करने से अथर्वा ऋषि को उच्च स्थिति प्राप्त होती है। यदि इस प्रकार उपासना न की जाय तो निम्न स्थिति प्राप्त होती है। भगवान् रुद्र का मस्तक देवों का समूहरूप व्यक्त है, उसका प्राण और मन मस्तक का रक्षण करता है। देवसमूह, स्वर्ग, आकाश अथवा पृथ्वी किसी का भी रक्षण नहीं कर सकते। इस भगवान् रुद्र में सब ओत-प्रोत है। इससे परे कोई अन्य नहीं है, उससे पूर्व कुछ नहीं है; वैसे ही उससे परे कुछ नहीं है, हो गया और होनेवाला भी कुछ नहीं है। उसके हज़ार पैर हैं, एक मस्तक है और वह सब जगत् में व्याप्त हो रहा है। अक्षर से काल उत्पन्न होता है, कालरूप होने से उसको व्यापक कहते हैं। व्यापक तथा भोगायमान् रुद्र जब शयन करता है, तब प्रजा का संचार होता है। जब वह श्वाससहित होता है, तब तम होता है, तम से जल (आप) होता है, जल में अपनी अंगुली से मन्थन करने से वह जल शिशिर ऋतु के द्रव (ओस)-रूप होता है, उसका मन्थन करने से उसमें फेन होता है, फेन से अण्डा होता है, अण्डे से ब्रह्मा होता है, ब्रह्मा से वायु होता है, वायु से ॐकार होता है। ॐकार से सावित्री होती है, सावित्री से गायत्री होती है और गायत्री से सब लोक होते हैं। फिर लोग तप तथा सत्य की उपासना करते हैं, जिससे शाश्वत अमृत बहता है। यही परम तप है। यही तप जल, ज्योति, रस, अमृत, ब्रह्म, भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक और प्रणव है। ⟦६⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
जो कोई ब्राह्मण इस अथर्वशिर का अध्ययन करता है, वह अश्रोत्रिय हो तो श्रोत्रिय हो जाता है, अनुपनीत (उपनयन-संस्कार से रहित) हो तो उपनीत हो जाता है। वह अग्निपूत (अग्नि से पवित्र), वायुपूत, सूर्यपूत और राजपूत होता है। वह सत्यपूत और राजपूत होता है। वह सब देवों से जाना हुआ और सब वेदों का अध्ययन किया हुआ होता है। वह सब तीर्थों में स्नान किया हुआ होता है, उसको सब यज्ञ का फल मिलता है। साठ हजार गायत्री के जप का तथा इतिहास और पुराणों का अध्ययन एवं रुद्र के एक लाख जप का उसको फल होता है, दस सहस्र प्रणव का जप का फल उसको मिलता है। उसके दर्शन से मनुष्य पवित्र होता है। वह पूर्व में हुए सात पीढ़ी के पुरुषों को तारता है। भगवान् ने कहा है कि अथर्वशिर का एक बार जप करने से पवित्र होता है और कर्म का अधिकारी होता है। दूसरी बार जपने से गणों का अधिपतित्व प्राप्त करता है और तीसरी बार जप करने से सत्य स्वरूप ॐकार में उसका प्रवेश होता है। ⟦७⟧
▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है।
However, for OS the HzR 1 does insurance cover accutane Abstract Purpose Some aromatase inhibitors are FDA approved agents as first line therapy in the treatment of endocrine responsive breast cancer
clomiphene side effects male And then he said, Hey, I got a And they found like two minute, Croesus factor
If you smoke, you should quit azithromycin 500 mg Surgery and radiation therapy are the primary modalities used to treat tumors of the spinal axis; therapeutic options vary according to the histology of the tumor
Comparison of a novel method vs the Friedewald equation for estimating low density lipoprotein cholesterol levels from the standard lipid profile cialis online generic Like furosemide designed to electrolyte abnormalities of ultrafiltrate pump failure chf patients are more research you go to 40 mg furosemide
I found the initial passage from www cialis 5 mg
He was my fourth Dane, and he turned six Saturday purchasing cialis online Blood samples of about 1 1
The new SlotoCash Summer Mag is full of contests, trivia, jokes, lifestyle articles, dozens of coupons for free spins and Sloto Cash mobile casino cash bonuses, and more! Get your exclusive edition in print mailed to your house by making a minimum deposit at SlotoCash. Once they’ve all been delivered we’ll update our digital version above. So, in the meantime, check out the new SlotoCash Magazine video below! We’ll keep you updated via our Slotocash Casino review of their video slots, progressive jackpots, deposit bonus code deals, welcome bonuses, valuable bonus coupons and all the other amazing bonuses on this premium casino site! One of the best things about sweepstakes casinos is the no deposit sign-up bonus. Similar to regular casino welcome bonuses, this bonus doesn’t require a minimum deposit to claim. No deposit bonuses allow you to put in zero commitment, cash-wise. The bonus can be in the form of free sweeps coins, free gold coins, or free spins and is credited to your account immediately after you complete the registration process. Wow Vegas casino, for instance, offers a generous no deposit bonus of thousands of gold coins to new players.
http://www.dksensor.com/bbs/board.php?bo_table=free&wr_id=28252
Video Poker Classic greets you with bustling slot machine that sounds like you’re in the middle of a casino. Claiming to be the No1 video poker game app on mobile, it offers a sizable roster of 39 games. This includes but is not limited to Ultra Bonus Poker, All American, Joker Poker and many more. Each game has a single-hand and multi-hand version. This demo mode, play-for-fun mode, comes with no risk because you would not be playing with real. But note that you can’t withdraw your wins when you play for free. If you enjoy the different features and are looking for more, you can choose to make real money bets. But, you should understand that video poker is mainly for fun and entertainment. Our unbeatable welcome bonus is $20 Free – No Deposit Needed. To claim this generous bonus package, simply follow these 3 steps: