शिव मानस पूजा स्तोत्र
मानस पूजा का अर्थ होता है मानसिक पूजा। पूजा के लिये सामग्री न होने पर भगवान् शिव की जिस स्तोत्र द्वारा मानसिक पूजा की जाती है, वह शिव मानस पूजा। वैसे भी स्तोत्र पढ़ा जाये तो अनुचित नहीं है।
इस स्तोत्र में श्रीमद् शंकराचार्य भगवान् शिव की मानसिक रूप से पूजा की है।
वैसे तो यह सम्पूर्ण स्तोत्र ही सुन्दर है, लेकिन इस स्तोत्र का चौथा मन्त्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है, जिसका अर्थ है आप स्तोत्र में पढ़ सकते हैं।
आइये,
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सुगम ज्ञान संगम के अध्यात्म + स्तोत्र संग्रह स्तम्भ में इसका हिन्दी में अर्थ जानते हैं। इसमें लघुशब्द भी दिये गये हैं, जिनकी सहायता से आप स्तोत्र सरलतापूर्वक पढ़ सकते हैं।
❀शिवमानसपूजा❀
(❑➧मूलमन्त्र ❍लघुशब्द ❑अर्थ➠सहित)
❑➧रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्।
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम्।।१।।
❍ रत्नैः कल्पित मासनं हिम जलैः,
स्नानं च दिव्याम्बरं
नाना रत्न विभूषितं मृग मदा,
मोदाङ्कितं चन्दनम्।
जाती चम्पक बिल्व पत्र रचितं,
पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते,
हृत्कल्पितं गृह्यताम्।।१।।
❑अर्थ➠हे दयानिधे ! हे पशुपते ! हे देव! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलि विभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिका गन्धसमन्वित चन्दन, जुही, चम्पा और बिल्वपत्रसे रचित पुष्पाञ्जलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक [पूजा के उपहार] ग्रहण कीजिये।।१।।
❑➧सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।२।।
❍ सौवर्णे नव रत्न खण्ड रचिते,
पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्च विधं पयोदधि युतं,
रम्भा फलं पानकम्।
शाकानाम युतं जलं रुचि करं,
कर्पूर खण्डोज् ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं,
भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।२।।
❑अर्थ➠मैंने नवीन रत्न खण्डों से भरा हुआ सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दही सहित पाँच प्रकार के व्यञ्जन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और ताम्बूल ─ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं; प्रभो ! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये।।२।।
❑➧छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो।।३।।
❍ छत्रं चामरयोर् युगं व्यजनकं,
चादर्शकं निर्मलं
वीणा भेरि मृदङ्ग काहल कला,
गीतं च नृत्यं तथा।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर् बहुविधा,
ह्येतत् समस्तं मया
सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो,
पूजां गृहाण प्रभो।।३।।
❑अर्थ➠छत्र, दो चँवर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदङ्ग, दुन्दुभी के वाद्य, गान और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नाना प्रकार की स्तुतियाँ ─ये सब मैं संकल्प से आपको समर्पण करता हूँ; हे प्रभो! मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिये।।३।।
❑➧आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्।।४।।
❍ आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः,
प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोप भोग रचना,
निद्रा समाधि स्थितिः।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिण विधिः,
स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्त दखिलं,
शम्भो तवा राधनम्।।४।।
❑अर्थ➠हे शम्भो! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं; इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है।।४।।
❑➧करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो।।५।।
❍ कर चरण कृतं वाक्का यजं कर्मजं वा
श्रवण नयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहित मविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो।।५।।
❑अर्थ➠प्रभो ! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मनसे जो भी अपराध किये हों, जो विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिये। हे करुणासागर श्री महादेव शंकर ! आपकी जय हो।।५।।
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