श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥
यह भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का ३५वाँ श्लोक है।
वर्तमान समय में पढ़ा-लिखा सभ्य, लेकिन संस्कार से भ्रष्ट व्यक्ति जाति-धर्म जैसी बातों को अन्धविश्वास मानता है। हिन्दू मुसलमान से, ईसाई हिन्दू से, मुसलमान ईसाई से विवाह कर लेता है। आगे की पीढ़ी कैसे चलेगी, इस बारे में नहीं सोचता। फ़िल्म और जाति-धर्म से च्युत (भ्रष्ट) लोगों की बातें सुनकर युवक-युवती शरीर के भोग को प्रेम का नाम देकर घर से भागकर शादी कर लेते हैं और अपनी ज़िन्दगी, आनेवाली पीढ़ी को बर्बाद कर लेते हैं। वर्णसंकरता इस क़दर बढ़ रही है कि आनेवाले समय में इन्सान पशु से भी बदतर जीवन जीने में रस लेने लगेगा।
प्रस्तुत लेख में परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी महाराज उपरोक्त श्लोक का विवेचन करते हुए बताते हैं कि अपने धर्म में कमी हो तो भी वह श्रेष्ठ है, दूसरे का धर्म विशेष और गुणों से भरा हो तो भी भय देनेवाला है
समतापूर्वक कर्तव्य कर्मों का आचरण करना ही कर्मयोग कहलाता है। कर्मयोग में ख़ास निष्काम भाव की मुख्यता है। निष्काम भाव न रहने पर कर्म केवल ‘कर्म’ होते हैं; कर्मयोग नहीं होता। शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म करने पर भी यदि निष्काम भाव नहीं है तो उन्हें कर्म ही कहा जाता है, ऐसी क्रियाओं से मुक्ति सम्भव नहीं; क्योंकि मुक्ति में भाव की ही प्रधानता है। निष्काम भाव सिद्ध होने में राग-द्वेष ही बाधक हैं— ‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३। ३४); वे इसके मार्ग में लुटेरे हैं। अत: राग-द्वेष के वश में नहीं होना चाहिये। तो फिर क्या करना चाहिये?—
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥
(गीता ३। ३५)
—इस श्लोक में बहुत विलक्षण बातें बतायी गयी हैं। इस एक श्लोक में चार चरण हैं। भगवान् ने इस श्लोक की रचना कैसी सुन्दर की है ! थोड़े-से शब्दों में कितने गम्भीर भाव भर दिये हैं। कर्मों के विषय में कहा है—
‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’
यहाँ ‘श्रेयान्’ क्यों कहा? इसलिये कि अर्जुन ने दूसरे अध्याय में गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भीख माँगना ‘श्रेय’ कहा था— ‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (२। ५); ‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२। ७) में अपने लिये निश्चित ‘श्रेय’ भी पूछा और तीसरे अध्याय में भी पुन: निश्चित ‘श्रेय’ ही पूछा— ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’ (३। २) यहाँ भी ‘निश्चित’ कहा और दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में भी ‘निश्चितम्’ कहा है। भाव यह है कि मेरे लिये कल्याणकारक अचूक रामबाण उपाय होना चाहिये। वहाँ अर्जुन ने प्रश्न करते हुए कहा— ‘ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन’ (३। १); यहाँ ‘ज्यायसी’ पद है। इस ज्यायसीका भगवान् ने ‘कर्मज्यायो ह्यकर्मण:’ (३। ८)में
‘ज्याय:’ कहकर उत्तर दिया कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। यहाँ भगवान् ने भीख माँगने की बात काट दी। तो फिर कर्म कौन-सा करें? इस पर बतलाया कि जो स्वधर्म है, वही कर्तव्य है; उसी का आचरण करो। अर्जुन के लिये स्वधर्म क्या है? युद्ध करना। १८वें अध्याय के ४३वें श्लोक में भगवान् ने क्षत्रिय के जो स्वाभाविक कर्म बतलाये हैं, क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन के लिये वे ही कर्तव्य कर्म हैं। वहाँ भी भगवान् ने ‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’—(१८। ४७) कहा है। स्वधर्म का नाम स्वकर्म है। यहाँ स्वकर्म है—युद्ध करना। ‘स्वधर्म:’ के साथ ‘विगुण:’ विशेषण क्यों दिया? अर्जुन ने तीसरे अध्याय के पहले श्लोक में युद्धरूपी कर्म को ‘घोर कर्म’ बतलाया है। इसीलिये भगवान् ने उसके उत्तर में उसे ‘विगुण:’ बतलाकर यह व्यक्त किया कि स्वधर्म विगुण होने पर भी कर्तव्य कर्म होने से श्रेष्ठ है। अत: अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है; तथा दूसरे अध्याय के बत्तीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने बतलाया कि धर्मयुद्ध से बढक़र क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक श्रेष्ठ साधन है ही नहीं।
‘परधर्मात् स्वनुष्ठितात्’ मतलब यह है कि परधर्म में गुणों का बाहुल्य भी हो और उसका आचरण भी अच्छी तरह से किया जाता हो तथा अपने धर्म में गुणों की कमी हो और उसका आचरण भी ठीक तरह से नहीं बन पाता हो, तब भी परधर्म की अपेक्षा स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ — अति श्रेष्ठ है। जैसे पतिव्रता स्त्री के लिये अपना पति सेव्य है, चाहे वह विगुण ही हो।
श्रीरामचरितमानस में कहे हुए—
बृद्ध रोग बस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥
— ये आठों अवगुण अपने पति में विद्यमान हों और उसकी सेवा भी साङ्गोपाङ्ग नहीं होती हो, तथा पर-पति गुणवान् भी हो और उसकी सेवा भी अच्छी तरह की जा सकती हो तो भी पत्नी के लिये अपने पति की सेवा ही श्रेष्ठ है, वही सेवनीय है; पर-पति कदापि सेवनीय नहीं। उसी प्रकार स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ (श्रेष्ठ) है, परधर्म कदापि नहीं।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥
—इससे भगवान् ने यह भाव बतलाया है कि कष्टों की सीमा मृत्यु है और स्वधर्म-पालन में यदि मृत्यु भी होती हो तो वह भी परिणाम में कल्याणकारक है। तात्पर्य यह कि परधर्म में प्रतीत होनेवाले गुण, उसके अनुष्ठान की सुगमता और उससे मिलनेवाले सुख की कोई कीमत नहीं है; क्योंकि वह परिणाम में महान् भयावह है। बल्कि अपने धर्म में गुणों की कमी, अनुष्ठान की दुष्करता और उसमें होनेवाले कष्ट भी महान् मूल्यवान् हैं; क्योंकि वह परिणाम में कल्याणकारक है। फिर जिस स्वधर्म में गुणों की कमी भी न हो, अनुष्ठान भी अच्छी प्रकार किया जा सकता हो तथा उसमें सुख भी होता हो, वह सर्वथा श्रेष्ठ है—इसमें तो कहना ही क्या है।
उपर्युक्त श्लोककी व्याख्या के अनुसार मनुष्यों को कर्तव्य-कर्मों का निष्काम भाव से अनुष्ठान करने में लग जाना चाहिये।