मनुष्य जन्म की सार्थकता ईश्वर-प्राप्ति में है, लेकिन यह उसके विचारों पर निर्भर करता है कि वह ईश्वर की भक्ति करके को परमार्थ को पाना चाहता है या नश्वर सुख की लालच में इस संसार में आसक्त है; क्योंकि सांसारिक इच्छा मनुष्य को न परमार्थ का होने देती है, ना ही संसार का! वह मनुष्य को इस क़दर पथभ्रष्ट कर देती है कि ईश्वरीय भक्ति का ढोंग करते हुए मनुष्य सारा जीवन व्यर्थ गँवा देता है। इसी सत्य को दर्शाती कथा है
❛ संसार और परमार्थ ❜
एक बार धरती पर नारद मुनि नारायण नाम का कीर्तन करते हुए विचरण कर रहे थे, तभी उनके कानों में आवाज़ सुनाई दी-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय… ॐ नमो भगवते वासुदेवाय… ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…
नारद मुनि उस आवाज़ की तरफ़ बढ़े और देखे कि एक पेड़ नीचे एक भक्त लीन होकर इस महामन्त्र का जाप कर रहा था। उसे देखकर नारद मुनि अति प्रसन्न हुए और वैकुण्ठ की ओेर प्रयाण कर दिये।
(वैकुण्ठ का दृश्य)
नारद:- “नारायण-नारायण”
विष्णु:- “आओ नारद, आज बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे हो?”
नारद:- “हाँ प्रभु, आज पृथ्वीलोक पर विचरण कर रहा था। एक भक्त को देखकर मन भक्तिभाव से आह्लादित हो गया। वह निरन्तर आपके नाम का जप कर रहा था। सोचा, आपसे मिलकर कह दूँ कि उस भक्त को आप अपना दर्शन अवश्य दें!”
(भगवान् विष्णु के चेहरे पर मुस्कान देखकर)
नारद:- “आप मुस्कुरा क्यों रहे हैं प्रभु?”
भगवान विष्णु धरती लोक पर देखते हुए बोले:- “क्या तुम उस भक्त की बात कर रहे हो?”
नारद:- “हाँ प्रभु, देखिये कैसे संसार से विरक्त होकर आपकी भक्ति में लीन है।”
भगवान विष्णु मन में कुछ सोचने लगे।
नारद:- “क्या सोच रहे हो प्रभु?”
विष्णु:- “सोच रहा हूँ, ऐसा भक्त धरती पर क्यों है? यह तो मेरे वैकुण्ठ में होना चाहिये।”
नारद:- “धन्य हो भगवन्! आप धन्य हो!! आप सच में कृपानिधान हो। मैं शीघ्र ही उससे जाकर कहता हूँ कि तुम्हें भगवान् विष्णु ने अपने धाम बुलाया है।”
विष्णु:- “परन्तु नारद, क्या तुम्हें पूर्ण विश्वास है कि वह मेरा परमभक्त है?”
नारद:- “भगवन्, इसमें कोई सन्देह नहीं।”
विष्णु:- “तो ठीक है, जाओ उसे वैकुण्ठलोक लेकर आओ।” इतना कहकर भगवान् विष्णु मुस्कुराने लगे
(धरती का दृश्य)
भक्त आँखें मूँदकर भगवन्नाम जप रहा था।
नारद:- “उठो भक्तराज, तुम्हें भगवान विष्णु ने बुलाया है। चलो, वैकुण्ठ चलते हैं।”
भक्त ने आँख खोलकर कहा:- “आप कौन हैं?”
नारद:- “मैं, मैं नारद हूँ।”
भक्त अचरज का भाव लिये बोला:- “नारद!”
नारद:- “हाँ, मैं देवर्षि नारद हूँ।”
भक्त:- “लेकिन मैं कैसे मानूँ?”
नारद (मन-ही-मन सोचते लगे):- “ये तो अजब बात हो गयी, अब मैं इसे कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं ही नारद हूँ…”
कुछ समय सोचने के बाद बोले
नारद:- “ठीक है, तुम मेरी परीक्षा ले लो।”
भक्त मन ही मन सोचने लगा:- “यदि ये सचमुच में नारद हैं तो कुछ भी कर सकते हैं…”
वह बोला:- “यदि आप सच में नारद हो तो दस दिन के भीतर मेरा विवाह हो जाये, ऐसा आशीर्वाद दो, तब मानूँगा कि आप सचमुच में नारद हो।”
नारद सोच में पड़ गये:- “यह तो बड़ी विकट परीक्षा है?”
नारद जी ध्यानमग्न हो गये। भगवान् विष्णु ध्यान में बोले- “हाँ कह दो।”
नारद:- “ठीक है, दस दिन के भीतर तुम्हारी शादी हो जायेगी! मैं दस दिन के बाद आऊँगा। लेकिन तुम मेरे साथ वैकुण्ठ अवश्य चलना।”
भक्त:- “हाँ हाँ, चलूँगा।”
नारद:- “तो ठीक है, मैं दस के बाद आऊँगा। नारायण-नारायण!”
नारद मुनि चले जाते हैं।
(दस दिन बाद)
भक्त का विवाह हो चुका था, वह अपनी नयी-नवेली दुल्हन के साथ बैठा था। तभी नारद का आगमन हुआ।
नारद:- “नारायण नारायण!”
पति-पत्नी दोनों प्रणाम करते हैं, नारद मुनि आशीर्वाद देकर बोले:- “चलो भक्तराज, अब वैकुण्ठ चलें। दस दिन के भीतर आपका विवाह हो गया।”
भक्त:- “नारद जी, अभी-अभी तो शादी हुई है। बाप बन जाऊँ, फिर चलूँगा। आप साल भर के बाद आना।”
नारद जी (मन-ही-मन):- “ओह! ये अपनी बात से मुकर गया।”
नारद मुनि फिर ध्यानमग्न हो गये। भगवान् विष्णु ध्यान में बोले- “हाँ कह दो।”
नारद- “ठीक है, मैं एक साल के बाद आता हूँ। चलता हूँ। नारायण-नारायण!”
(एक साल बाद)
भक्त पिता बन चुका था। अपने नन्हे-से बच्चे को गोद में लेकर पुचकार रहा था। बग़ल में पत्नी भी बैठी थी।
नारदजी आगमन हुआ:- “नारायण-नारायण!”
भक्त का ध्यान नारदजी की ओर नहीं गया।
नारदजी पुनः बोले:- “नारायण-नारायण!”
भक्त:- “अरे देवर्षि, आप आ गये।”
नारद:- हाँ भक्तराज। चलो, अब तो आप पिता भी बन गये।”
भक्त:- “हाँ, परन्तु अभी तो मैंने अपने पुत्र को जी भरकर देखा भी नहीं है, इसे थोड़ा बड़ा हो जाने दो, ज़रा पुत्र-सुख भोग लेने दो, फिर चलूँगा। आप दस साल के बाद आना, मै अवश्य चलूँगा।”
नारद जी ध्यानमग्न हो गये। भगवान् विष्णु ध्यान में मुस्कुराये बोले:- “वापस आ जाओ नारद, दस साल बाद जाना।”
नारदजी दुविधा की स्थिति वहाँ से चल दिये।
(दस साल बाद)
भक्तराज का पुत्र बड़ा हो चुका था। वह अपने पिता के साथ बैठा था। तभी नारदजी का आगमन हुआ।
नारद:- “नारायण-नारायण! चलो भक्तराज, अब तो आपका पुत्र दस वर्ष का हो चुका है।”
भक्त:- “हाँ चलूगा, यह थोड़ा बड़ा होकर कमाने लगे तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँगा। आप और दस-पन्द्रह साल के बाद आना, तब चलूँगा।”
नारदजी ध्यान-अवस्था में:- “प्रभु, अब क्या करू?”
भगवान विष्णु मुस्कुराते हुए:- “उसकी बात मान जाओ।”
नारदजी चले गये।
(पुनः पन्द्रह साल के बाद)
नारद:- “चलो भक्तराज, अब तो आपका पुत्र बड़ा हो गया। कमाने भी लगा है।”
भक्त:- “हाँ, नारदजी। बस, इसकी भी शादी हो जाये, यह भी बाप बन जाये, मैं दादा बन जाऊँ फिर चलूँगा।”
नारदजी ध्यानावस्था में:- “प्रभु, अब क्या करू?”
भगवान् विष्णु:- “आ जाओ नारद, उसे दादा बन जाने दो।”
(कुछ साल और बीत गये।)
वह भक्त दादा भी बन गया। अपने पोते को गोद में बैठाकर खिला रहा था। तभी नारदजी का आगमन हुआ।
नारद:- “चलो भक्तराज, अब तो आप दादा भी बन गये। युवा अवस्था से वृद्ध हो चले, आयु क्षीण हो गयी है।”
भक्त ग़ुस्से में:- “आप मुझे जीने क्यों नहीं देते, आख़िर मेरे पीछे ही क्यों पड़े हो? क्या मेरा सुख आपसे देखा नहीं जा रहा है?”
नारदजी आश्चर्यचकित रह गये। भगवान् विष्णु का ध्यान किया, भगवान विष्णु (मुस्कुराते हुए):- “क्या हुआ नारद?”
नारद (जैसे अपनी भूल का पश्चाताप कर हों) बोले:- “प्रभु, आपकी माया बड़ी प्रबल है, जीव इसमें उलझकर आपको भूल गया है। वह आपकी भक्ति का ढोंग करते हुए सारा जीवन व्यर्थ गँवा देता है।”
विष्णु:- “हाँ नारद, तुम सत्य कह रहे हो। इस भक्त की तरह धरती पर जन्म लेने के बाद हर जीव अपने जन्म के लक्ष्य को भूल जाता है और संसार में इस क़दर सुख ढूँढने लगता है कि मैं साक्षात् उसके सामने प्रकट हो जाऊँ तो भी वह मुझे पहचान नहीं सकता, ना ही स्वयं को मेरे प्रति समर्पित करेगा।
यह इस भक्त की ही नहीं, अपितु सारे मनुष्य की यही दशा है। सब संसार को पाना चाहते हैं, परमार्थ को नहीं।”
तन के सुख में लीन हो, जीव न हो भव पार।
साक्षात् भगवान मिले, वो चाहे संसार।।
शरीर के सुख में मग्न हुआ (मनुष्य) जीव भव सागर से कभी नहीं तर सकता; क्योंकि साक्षात् भगवान् के मिलने पर भी वह उनसे संसार की ही इच्छा रखेगा (परमार्थ की नहीं)।
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