सिद्धकुंजिका हिन्दी अर्थ

सिद्धकुंजिका हिन्दी अर्थ

प्रतिदिन प्रात:काल कुंजिकास्तोत्र का पाठ करने से सब प्रकार के विघ्न-बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं। इस स्तोत्र का देवीसूक्तसहित दुर्गा सप्तशती पाठ से परम सिद्धि प्राप्त होती है।

मारण:- काम-क्रोध का नाश,
मोहन:- इष्टदेव-मोहन,
वशीकरण:- मन का वशीकरण,
स्तम्भन:- इन्द्रियों को विषयों के प्रति उपरति और
उच्चाटन:- मोक्षप्राप्ति के लिये छटपटाहट
ये सभी इस स्तोत्र का इस उद्देश्यसे सेवन करने से सफल होते हैं।
आइये,
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❀ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र ❀
(मूलपाठ-हिन्दी अर्थसहित)

❑➧शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्।।१।।
❑अर्थ➠ शिवजी बोले, सुनो देवी! मैं उत्तम कुंजिकास्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल होता है।।१।।

❑➧न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्।।२।।
❑अर्थ➠ कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक) नहीं है।।२।।

❑➧कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्।।३।।
❑अर्थ➠ केवल कुंजिका के पाठ से दुर्गापाठ का फल प्राप्त हो जाता है। (यह कुंजिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिये भी दुर्लभ है।।३।।

❑➧गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।।४।।
❑अर्थ➠ हे पार्वती! इसे स्वयोनि की भाँति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। यह उत्तम कुंजिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि उद्देश्यों को सिद्ध करता है।।४।।

।।अथ मन्त्रः।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।
ॐ ग्लौं हूं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
।।इति मन्त्रः।।

(मन्त्र में आये बीजों का अर्थ जानना न सम्भव है, न आवश्यक। केवल जप पर्याप्त है। पाठ करते समय अथ मन्त्र: और इति मन्त्रः नहीं बोलना चाहिये।)

❑➧नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि।।१।।
❑अर्थ➠ हे रुद्रस्वरूपिणी! तुम्हें नमस्कार है। मधु दैत्य को मारनेवाली! तुम्हें नमस्कार है। कैटभ विनाशिनी को नमस्कार है। महिषासुर को मारनेवाली देवी! तुम्हें नमस्कार है।।१।।

❑➧नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।।२।।
❑अर्थ➠ शुम्भ का हनन करनेवाली और निशुम्भको मारनेवाली तुम्हें नमस्कार है। हे महादेवि! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो।।२।।

❑➧ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।३।।
❑अर्थ➠ ‘ऐं’ के रूप में सृष्टिस्वरूपिणी, ‘ह्रीं’ के रूप में सृष्टिपालन करनेवाली। ‘क्लीं’ के रूप में कामरूपिणी (तथा अखिल ब्रह्माण्ड) की बीजरूपिणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।।३।।

❑➧चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।४।।
❑अर्थ➠ चामुण्डा के रूप में चण्डविनाशिनी और ‘यैकार’ के रूपमें तुम वर देनेवाली हो। ‘विच्चे’ रूपमें तुम नित्य ही अभय देती हो। (इस प्रकार ‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’) तुम इस मन्त्रका स्वरूप हो।।४।।

❑➧धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु।।५।।
❑अर्थ➠ ‘धां धीं धूं’ के रूपमें धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। ‘वां वीं वूं’ के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। ‘क्रां क्रीं क्रू’ के रूप में कालिकादेवी, ‘शां शीं शूं’ के
रूप में मेरा कल्याण करो।।५।।

❑➧हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः।।६।।
❑अर्थ➠ ‘हुं हुं हुंकार’ स्वरूपिणी, ‘जं जं जं’ जम्भनादिनी, ‘भां भ्रीं भ्रं’ के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम है।।६।।

❑➧अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं।
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।।७।।
❑अर्थ➠ ‘अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं’ इन सबको तोड़ो और दीप्त करो, करो स्वाहा।।७।।

❑➧पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे।।८।।
❑अर्थ➠ ‘पां पीं पूं’ के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। ‘खां खीं खूं’ के रूपमें तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो। ‘सां सीं सूं’ स्वरूपिणी सप्तशती देवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो।।८।।

❑➧इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति।।
❑अर्थ➠ यह कुंजिकास्तोत्र मन्त्र को जगानेके लिये है। इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिये। हे पार्वती! इसे गुप्त रखो।

❑➧यस्तु कुञ्जिकया देवि हीना सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।
❑अर्थ➠ हे देवी! जो बिना कुंजिका के सप्तशती का पाठ करता है, उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है।

❑➧।।इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
❑अर्थ➠ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के गौरीतन्त्रमें शिव-पार्वती-संवाद में सिद्धकुंजिकास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।