सूर्य अथर्वशीर्ष
(❑➧मूलपाठ एवं हिन्दी ❑अर्थ➠ सहित)
● शान्तिपाठ ●
❑➧ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाᳬंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
❑अर्थ➠ हे देवगण! हम भगवान् का यजन (आराधन) करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें, नेत्रों से कल्याण (ही) देखें, सुदृढ़ अंगों एवं शरीर से भगवान् की स्तुति करते हुए हम लोग जो आयु आराध्यदेव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। सब ओर फैले हुए सुयशवाले इन्द्र हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखनेवाले पूषा हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, अरिष्टों को मिटाने के लिये चक्र के सदृश शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिये कल्याण का पोषण करें तथा (बुद्धि के स्वामी) बृहस्पति भी हमारे लिये कल्याण की पुष्टि करें। हे परमात्मन्! हमारे त्रिविध ताप की शान्ति हो।
❑➧हरिः ॐ।। अथ सूर्याथर्वाङ्गिरसं व्याख्यास्यामः। ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः। आदित्यो देवता । हंस: सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम्। हृल्लेखा शक्तिः। वियदादिसर्गसंयुक्तं कीलकम्। चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थे विनियोगः।
❑अर्थ➠ हरिः ॐ। अब सूर्यदेव सम्बन्धी अथर्वांगिरस मन्त्रों का व्याख्यान करेंगे। इसके ब्रह्मा ऋषि हैं। गायत्री छन्द है। आदित्य देवता हैं। ‘हंस:’ ‘सोऽहं’ अग्नि नारायण युक्त बीज है। हृल्लेखा शक्ति है। वियदादि सृष्टि से संयुक्त कीलक है। चारों प्रकारके के पुरुषार्थ की सिद्धि में इस मन्त्र का विनियोग किया जाता है।
❑➧षट्स्वरारूढेन बीजेन षडङ्गं रक्ताम्बुजसंस्थितम्। सप्ताश्वरथिनं हिरण्यवर्णं चतुर्भुजं पद्मद्वयाभयवरदहस्तं कालचक्रप्रणेतारं श्रीसूर्यनारायणं य एवं वेद स वै ब्राह्मणः।
❑अर्थ➠ छः स्वरों पर आरूढ़ बीज के साथ, छ: अंगोंवाले, लाल कमल पर स्थित, सात घोड़ों रथ पर सवार, हिरण्यवर्ण, चतुर्भुज तथा चारों हाथों में क्रमश: दो कमल तथा वर और अभयमुद्रा धारण किये, कालचक्र के प्रणेता श्रीसूर्य नारायण को जो इस प्रकार जानता है, निश्चयपूर्वक वही ब्रह्मवेत्ता है।
❑➧ॐ भूर्भुवः स्वः। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।
❑अर्थ➠ जो प्रणव अर्थभूत सच्चिदानन्दमय और भूः, भुवः एवं स्वः रूप से त्रिभुवनमय हैं, सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करनेवाले उन भगवान् सूर्यदेव के सर्वश्रेष्ठ तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को प्रेरणा प्रदान करें।
❑➧सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। सूर्याद्वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। सूर्याद्यज्ञःपर्जन्योऽन्नमात्मा। नमस्त आदित्य त्वमेव केवलं कर्मकर्तासि। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षं विष्णुरसि। त्वमेव प्रत्यक्षं रुद्रोऽसि। त्वमेव प्रत्यक्षमृगसि। त्वमेव प्रत्यक्षं यजुरसि। त्वमेव प्रत्यक्षं सामासि। त्वमेव प्रत्यक्षमथर्वासि। त्वमेव सर्वं छन्दोऽसि। आदित्याद्वायुर्जायते। आदित्याद् भूमिर्जायते। आदित्यादापो जायन्ते। आदित्याज्ज्योतिर्जायते। आदित्याद् व्योम दिशो जायन्ते। आदित्याद्देवा जायन्ते। आदित्याद्वेदा जायन्ते। आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति। असावादित्यो ब्रह्म। आदित्योऽन्तःकरणमनोबुद्धिचित्ताहंकाराः। आदित्यो वै व्यानः समानोदानोपानः प्राणः। आदित्यो वै श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाः। आदित्यो वै वाक्पाणिपादपायूपस्थाः। आदित्यो वै शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः। आदित्यो वै वचनादानागमनविसर्गानन्दाः। आनन्दमयो ज्ञानमयो विज्ञानमय आदित्यः। नमो मित्रायभानवे मृत्योर्मां पाहि भ्राजिष्णवे विश्वहेतवे नमः। सूर्याद् भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु। सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च। चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः। चक्षुर्धाता दधातु नः। आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।
❑अर्थ➠ भगवान् सूर्यनारायण सम्पूर्ण जंगम और स्थावर जगत् के आत्मा हैं, निश्चयपूर्वक सूर्यदेव से ही ये भूत उत्पन्न होते हैं। सूर्यदेव से यज्ञ, बादल, अन्न (बल-वीर्य) एवं आत्मा (चेतना) का आविर्भाव होता है। हे आदित्य! आपको हमारा नमस्कार है। आप ही केवल कार्यकर्ता हैं, आप ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं, आप ही प्रत्यक्ष विष्णु हैं, आप ही प्रत्यक्ष रुद्र हैं। आप ही प्रत्यक्ष ऋग्वेद हैं। आप ही प्रत्यक्ष यजुर्वेद हैं। आप ही प्रत्यक्ष सामवेद हैं। आप ही प्रत्यक्ष अथर्ववेद हैं। आप ही समस्त छन्दस्वरूप हैं। आदित्य से वायु उत्पन्न होती है। आदित्य से भूमि उत्पन्न होती है। आदित्य से जल उत्पन्न होता है। आदित्य से ज्योति (अग्नि) उत्पन्न होती है, आदित्य से आकाश और दिशाएँ उत्पन्न होती हैं। आदित्य से देवता उत्पन्न होते हैं। आदित्य से वेद उत्पन्न होते हैं। निश्चय ही ये आदित्यदेवता ही इस ब्रह्माण्ड-मण्डल को तपाते (गर्मी प्रदान करते) हैं। वे आदित्य ब्रह्म हैं। आदित्य ही अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार रूप हैं। आदित्य ही व्यान, समान, उदान, अपान और प्राण इन पाँचों प्राणों के रूप में विराजते हैं। आदित्य ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना एवं घ्राण ─इन पाँच इन्द्रियोंके रूप में क्रियाशील हैं। आदित्य देव ही वाक् (मुख) पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (मलद्वार) एवं उपस्थ (मूतेन्द्रीय) ─ये पाँचों कर्मेन्द्रिय भी हैं। आदित्य ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ─ये ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषय हैं। आदित्य ही वचन, आदान, गमन, मलत्याग एवं आनन्द ─ये कर्मेन्द्रियों के पाँच विषय है। आनन्दमय, ज्ञानमय एवं विज्ञानमय आदित्यदेव ही हैं। मित्रदेवता एवं सूर्यदेव को नमस्कार है। प्रभो! (आप) मृत्युसे मेरी रक्षा करें। दीप्तमान् तथा विश्व के कारणरूप सूर्यनारायण को नमस्कार है। सूर्य से सम्पूर्ण चराचर जीव उत्पन्न होते हैं, सूर्य के द्वारा ही उनका पालन होता है। अन्त में सूर्य में ही वे लय को प्राप्त होते हैं। जो सूर्यनारायण हैं, वही मैं भी हूँ। सविता देवता हमारे नेत्र हैं एवं (पर्व के द्वारा पुण्यकाल का आख्यान करने के कारण) जो पर्वत नाम से प्रसिद्ध हैं, वे सूर्य ही हमारे चक्षु हैं। (सबको धारण करनेवाले) धाता नाम से प्रसिद्ध वे आदित्यदेव हमारे नेत्रों को दृष्टिशक्ति प्रदान करके धारण करें। (श्रीसूर्य गायत्री-) हम भगवान् आदित्य को जानते हैं, हम सहस्र (अनन्त) किरणों से मण्डित भगवान् सूर्यनारायण का ध्यान करते हैं। वे सूर्यदेव हमें प्रेरणा प्रदान करें।
❑➧सविता पश्चात्तात्सविता पुरस्तात्सवितोत्तरात्तात्सविताधरात्तात्। सविता नः सुवतुसर्वतातिं सविता नो रासतां दीर्घमायुः।
❑अर्थ➠ हमारे पीछे सविता देवता हैं, आगे सविता देवता हैं, बायें सविता देवता हैं और दक्षिण भागमें भी तथा ऊपर-नीचे भी सविता देवता है। सविता देवता हमारे लिये सब कुछ उत्पन्न करें (सभी अभीष्ट वस्तुएँ दें)। सविता देवता हमें दीर्घायु प्रदान करें।
❑➧ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म घृणिरिति द्वे अक्षरे। सूर्य इत्यक्षरद्वयम्। आदित्य इति त्रीण्यक्षराणि। एतस्यैव सूर्यस्याष्टाक्षरो मनुः।
❑अर्थ➠ ॐ यह एकाक्षर मन्त्र ब्रह्म है ‘घृणि:’ यह दो अक्षर का मन्त्र है। ‘सूर्यः’ यह दो अक्षर मन्त्र है। ‘आदित्यः’ इस मन्त्र में तीन अक्षर हैं। इन सबको मिलाकर सूर्य नारायण का अष्टाक्षर महामन्त्र-‘ॐ घृणिः सूर्य आदित्योम्’ बनता है। [यही अथर्वांगिरस सूर्य मन्त्र है।]
❑➧यः सदाहरहर्जपति स वै ब्राह्मणो भवति। स वै ब्राह्मणो भवति। सूर्याभिमुखो जप्त्वा महाव्याधिभयात्प्रमुच्यते। अलक्ष्मीर्नश्यति। अभक्ष्यभक्षणात् पूतो भवति। अगम्यागमनात्पूतो भवति। पतितसम्भाषणात्पूतो भवति। असत्सम्भाषणात्पूतो भवति। मध्याह्ने सूर्याभि मुखः पठेत्। सद्योत्पन्नपञ्चमहापातकात्प्रमुच्यते। सैषां सावित्रीं विद्यां न किञ्चिदपि न कस्मैचित्प्रशंसयेत्। य एतां महाभागः प्रातः पठति स भाग्यवाञ्जायते। पशून् विन्दति। वेदार्थाँल्लभते। त्रिकालमेतज्जप्त्वा क्रतुशतफलमवाप्नोति। यो हस्तादित्ये जपति स महामृत्युं तरति। स महामृत्युं तरति। य एवं वेद।। इत्युपनिषत्।।
❑अर्थ➠ इस मन्त्र का जो प्रतिदिन जप करता है, वही ब्रह्मवेत्ता होता है, वही ब्राह्मण होता है। सूर्यनारायण की ओर मुख करके इसे जपने से महाव्याधिके भय से मुक्त हो जाता है। उसका दारिद्र्य नष्ट हो जाता है। अभक्ष्य भक्षण से पवित्र होता है, अगम्यगमन पवित्र होता है। पतितसम्भाषण के दोष से पवित्र होता है। असत्यभाषण के दोष से पवित्र होता है। मध्याह्न में सूर्य की ओर मुख करके इसका जप करे। इस प्रकार करने से मनुष्य सद्यः उत्पन्न पाँच महापातकों से छूट जाता है। यह सावित्री विद्या है, इसकी जिस किसी अपात्र से कुछ भी प्रशंसा (परिचर्चा) न करे। जो महाभाग इसका प्रात:काल पाठ करता है, वह भाग्यवान् हो जाता है। उसे गौ इत्यादि पशुओं का लाभ होता है, वह वेद के अभिप्राय को जाननेवाला होता है। इसका त्रिकाल जप करने से सैकड़ों यज्ञों का फल प्राप्त होता है। जो सूर्यदेव के हस्त नक्षत्र में रहते सम (अर्थात् आश्विन माह में) इसका जप करता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। जो इस प्रकार से जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है।
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