गंगा स्तोत्रम्

गंगा स्तोत्रम्

माँ गंगा हमारी आराध्या हैं। हमारे जीते जी भी हमें अपने जल से तृप्त करती हैं और मरणोपरान्त भी सद्गति प्रदान करती हैं। भले हम गंगा-तट वासी न हों, लेकिन गंगा हमारी हृदयवासिनी हैं। श्रीमत् शंकराचार्य द्वारा उनकी स्तुति अद्भुत है। इस स्तोत्र की धुन गंगा-जलधारा की तरह ही धारा-प्रवाह है। और लघु शब्दों की सहायता से तो और भी सरलता से इसे पठन किया जा सकता है। तो आइये, इसका पाठ करके भगवती गंगा का आशिष पायें। लघु❍शब्दों का PDF पोस्ट के अन्त में उपलब्ध है। मूलश्लोक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब देवी स्तोत्र रत्नाकर से लिया गया है।

श्रीगङ्गास्तोत्रम्

❑➧देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले।।१।।
❍ देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवन-तारिणि तरल-तरङ्गे।
शङ्कर-मौलि-विहारिणि विमले
मम मति-रास्तां तव पद-कमले।।१।।

❑➧भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।२।।
❍ भागीरथि सुख-दायिनि मातस्
तव जल-महिमा निगमे ख्यातः।
नाहं जाने तव महिमानं
पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।२।।

❑➧हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम्।।३।।
❍ हरि-पद-पाद्य-तरङ्गिणि गङ्गे
हिम-विधु-मुक्ता-धवल-तरङ्गे।
दूरी-कुरु मम दुष्कृति-भारं
कुरु कृपया भव-सागर-पारम्।।३।।

❑➧तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम्।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः।।४।।
❍ तव जल-ममलं येन निपीत
परम-पदं खलु तेन गृहीतम्।
मातर्-गङ्गे त्वयि यो भक्तः
किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः।।४।।

❑➧पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये।।५।।
❍ पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे
खण्डित-गिरिवर-मण्डित-भङ्गे।
भीष्म-जननि हे मुनिवर-कन्ये
पतित-निवारिणि त्रिभुवन-धन्ये।।५।।

❑➧कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।
पारावारविहारिणि गङ्गे विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे।।६।।
❍ कल्प-लता-मिव फलदां लोके
प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।
पारावार-विहारिणि गङ्गे
विमुख-युवति-कृत-तरला-पाङ्गे।।६।।

❑➧तव चेन्मातः स्रोतःस्नातः पुनरपि जठरे सोऽपि न जात:।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे।।७।।
❍ तव चेन्मातः स्रोतः-स्नातः
पुनरपि जठरे सोऽपि न जात:।
नरक-निवारिणि जाह्नवि गङ्गे
कलुष-विनाशिनि महिमोत्-तुङ्गे।।७।।

❑➧पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे जय जय जाह्नावि करुणापाङ्गे।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये।।८।।
❍ पुनरस-दङ्गे पुण्य-तरङ्गे
जय जय जाह्नावि करुणापाङ्गे।
इन्द्र-मुकुट-मणि-राजित-चरणे
सुखदे शुभदे भृत्य-शरण्ये।।८।।

❑➧रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुरमति कलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे।।९।।
❍ रोगं शोकं तापं पापं
हर मे भगवति कुरमति कलापम्।
त्रिभुवन-सारे वसुधा-हारे
त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे।।९।।

❑➧अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवास:।।१०।।
❍ अलका-नन्दे परमा-नन्दे
कुरु करुणा-मयि कातर-वन्द्ये।
तव तट-निकटे यस्य निवासः
खलु वैकुण्ठे तस्य निवास:।।१०।।

❑➧वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरट: क्षीण:।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः।।११।।
❍ वरमिह नीरे कमठो मीनः
किं वा तीरे शरट: क्षीण:।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्
तव न हि दूरे नृपति-कुलीनः।।११।।

❑➧भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम्।।१२।।
❍ भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये
देवि द्रवमयि मुनिवर-कन्ये।
गङ्गास्-तव-मिम-ममलं नित्यं
पठति नरो यः स जयति सत्यम्।।१२।।

❑➧येषां हृदये गङ्गाभक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः।
मधुराकान्तापज्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः।।१३।।
❍ येषां हृदये गङ्गा-भक्तिस्-
तेषां भवति सदा सुख-मुक्तिः।
मधुरा-कान्ता-पज्झटि-काभिः
परमानन्द-कलित-ललिताभिः।।१३।।

❑➧गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं वाञ्छितफलदं विमलं सारम्।
शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्त:।।१४।।
❍ गङ्गा-स्तोत्र-मिदं भव-सारं
वाञ्छित-फलदं विमलं सारम्।
शङ्कर-सेवक-शङ्कर-रचितं
पठति सुखी स्तव इति च समाप्त:।।१४।।

।।इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीगङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

हिन्दी अर्थ

❑अर्थ➠हे देवि गंगे! तुम देवगणकी ईश्वरी हो, हे भगवति! तुम त्रिभुवनको तारनेवाली, विमल और तरल तरंगमयी तथा शंकर के मस्तक पर विहार करनेवाली हो। हे मातः! तुम्हारे चरणकमलों में मेरी मति लगी रहे॥१॥

❑अर्थ➠हे भागीरथि! तुम सब प्राणियों को सुख देती हो, हे मातः! वेद शास्त्रों में तुम्हारे जल का माहात्म्य वर्णित है, मैं तुम्हारी महिमा कुछ नहीं जानता, हे दयामयि! मुझ अज्ञानी की रक्षा करो॥२॥

❑अर्थ➠हे गंगे! तुम श्रीहरि के चरणों की चरणोदक मयी नदी हो, हे देवि! तुम्हारी तरंगें हिम, चन्द्रमा और मोती की भाँति श्वेत हैं, तुम मेरे पापों का भार दूर कर दो और कृपा करके मुझे भवसागर के पार उतारो॥३॥

❑अर्थ➠हे देवि! जिसने तुम्हारा जल पी लिया, अवश्य ही उसने परमपद पा लिया, हे मातः गंगे! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकता (अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरी में न जाकर वैकुण्ठ में जाते हैं)॥४॥

❑अर्थ➠हे पतितजनों का उद्धार करनेवाली जहतुकुमारी गंगे! तुम्हारी तरंगें गिरिराज हिमालय खण्डित करके बहती हुई सुशोभित होती हैं, तुम भीष्म की जननी और जह्नु मुनि की कन्या हो, पतितपावनी होनेके कारण तुम त्रिभुवनमें धन्य हो॥५॥

❑अर्थ➠हे मातः! तुम इस लोक में कल्पलता की भाँति फल प्रदान करनेवाली हो, तुम्हें जो प्रणाम करता है, वह कभी शोक में नहीं पड़ता, हे गंगे! मानिनि वनिता के समान चंचल कटाक्षवाली तुम समुद्र के साथ विहार करती हो॥६॥

❑अर्थ➠हे गंगे! जिसने तुम्हारे प्रवाहमें स्नान कर लिया, वह फिर मातृगर्भ में प्रवेश नहीं करता, हे जाह्नवि! तुम भक्तों को नरक से बचाती हो और उनके पापों का नाश करती हो, तुम्हारा माहात्म्य अतीव उच्च है॥७॥

❑अर्थ➠हे करुणाकटाक्षवाली जह्नुपुत्री गंगे! मेरे अपावन अंगों पर अपनी पावन तरंगों से युक्त हो उल्लसित होनेवाली, तुम्हारी जय हो! जय हो!! तुम्हारे चरण इन्द्र के मुकुटमणि-से प्रदीप्त हैं, तुम सबको सुख और शुभ देनेवाली हो और अपने सेवक को आश्रय प्रदान करती हो॥८॥

❑अर्थ➠हे भगवति! तुम मेरे रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति कलाप को हर लो, तुम त्रिभुवन की सार और वसुधा (धरती) की हार (माला) हो, हे देवि! इस संसार में एकमात्र तुम्ही मेरी गति हो॥९॥

❑अर्थ➠हे दुःखियों की वन्दनीया देवि गंगे! तुम अलकापुरी को आनन्द देनेवाली और परमानन्दमयी हो, तुम मुझ पर कृपा करो, हे मातः! जो तुम्हारे तट के निकट वास करता है, वह मानो वैकुण्ठ में ही वास करता है॥१०॥

❑अर्थ➠हे देवि! तुम्हारे जल में कच्छप या मीन बनकर रहना अच्छा है, तुम्हारे तीर पर दुबला-पतला गिरगिट (कृकलास) बनकर रहना अच्छा है या अति मलिन दीन चाण्डाल कुल में जन्म ग्रहण कर रहना अच्छा है, परन्तु (तुमसे) दूर कुलीन नरपति होकर रहना भी अच्छा नहीं॥११॥

❑अर्थ➠हे देवि! तुम त्रिभुवन की ईश्वरी हो, तुम पावन और धन्य हो, जलमयी तथा मनावर की कन्या हो। जो प्रतिदिन इस गंगास्तोत्र का पाठ करता है, वह निश्चय ही संसारमें जयलाभ कर सकता है॥१२॥

❑अर्थ➠जिनके हृदय में गंगा के प्रति अचला भक्ति है, वे सदा ही आनन्द और मुक्तिलाभ करते हैं; यह स्तुति परमानन्दमयी सुललित पदावली से युक्त, मधुर और कमनीय है॥१३॥

❑अर्थ➠इस असार संसार में उक्त गंगा स्तोत्र ही निर्मल सारवान् पदार्थ है, यह भक्तों को अभिलषित फल प्रदान करता है; शंकर के सेवक शकराचार्य कृत इस स्तोत्र को जो पढ़ता है, वह सुखी होता है-इस प्रकार यह स्तोत्र समाप्त हुआ॥१४॥

इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य श्रीगंगास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।