श्रीगणाधिपस्तोत्रम्

श्रीगणाधिपस्तोत्रम् पंचचामर छन्द पर आधारित श्रीमत् शंकराचार्य की रचना है। यदि आपने शिवताण्डव सुना या पढ़ा है तो निश्चित ही यह स्तोत्र सुनना या बोलना चाहेंगे। इसे बोलते समय यही लगेगा कि शिवताण्डव पढ़-सुन रहे हैं, लेकिन यह उसी धुन पर गणेशजी की वन्दना है। गणेश भक्तों के लिये यह बहुत ही प्रियकर है।

इसमें छः श्लोक ही है। पाँच श्लोक में गणेश की महिमा बतलाकर उन्हें नमस्कार किया गया है। छठे श्लोक में इसका माहात्म्य है, जिसमें कहा गया है जो लोग प्रेमपूर्वक प्रसन्नता के साथ इसका पाठ करते हैं, वे विद्वानों के समक्ष अपने वैभव के लिये प्रकाशित होते हैं तथा दीर्घायु, अधिक श्री-सम्पत्ति से सम्मान और सुन्दर पुत्रवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है।

तो आइये इसे छोटे-छोटे (लघु ❍) शब्दों की सहायता से पढ़कर गणेशजी का आशीर्वाद पायें।

श्रीगणाधिपस्तोत्रम्

❑➧सरागिलोकदुर्लभं विरागिलोकपूजितं
सुरासुरैर्नमस्कृतं जरादिमृत्युनाशकम्।
गिरा गुरुं श्रिया हरिं जयन्ति यत्पदार्चका
नमामि तं गणाधिपं कृपापयः पयोनिधिम्।।१।।
❍ सरागि-लोक-दुर्लभं विरागि-लोक-पूजितं
सुरा-सुरैर्-नमस्कृतं जरादि-मृत्यु-नाशकम्।
गिरा गुरुं श्रिया हरिं जयन्ति यत्-पदार्चका
नमामि तं गणा-धिपं कृपापयः पयो-निधिम्।।१।।

❑➧गिरीन्द्रजामुखाम्बुजप्रमोददानभास्करं
करीन्द्रवक्त्रमानताघसङ्घवारणोद्यतम्।
सरीसृपेशबद्धकुक्षिमाश्रयामि सन्ततं
शरीरकान्तिनिर्जिताब्जबन्धुबालसन्ततिम्।।२।।
❍ गिरीन्द्रजा-मुखाम्बुज-प्रमोद-दान-भास्करं
करीन्द्र-वक्त्र-मानताघ-सङ्घ-वारणोद्यतम्।
सरीसृपेश-बद्ध-कुक्षि-माश्रयामि सन्ततं
शरीर-कान्ति-निर्जिताब्ज-बन्धु-बाल-सन्ततिम्।।२।।

❑➧शुकादिमौनिवन्दितं गकारवाच्यमक्षरं
प्रकाममिष्टदायिनं सकामनम्रपङ्क्तये।
चकासनं चतुर्भुजैर्विकासिपद्मपूजितं
प्रकाशितात्मतत्त्वकं नमाम्यहं गणाधिपं।।३।।
❍ शुकादि-मौनि-वन्दितं गकार-वाच्य-मक्षरं
प्रकाम-मिष्ट-दायिनं सकाम-नम्र-पङ्क्तये।
चकासनं चतुर्भुजैर्-विकासि-पद्मपूजितं
प्रकाशि-तात्म-तत्त्वकं नमाम्यहं गणाधिपं।।३।।

❑➧नराधिपत्वदायकं स्वरादिलोकदायकं
जरादिरोगवारकं निराकृतासुरव्रजम्।
कराम्बुजैर्धरन्सृणीन् विकारशून्यमानसै-
र्हृदा सदा विभावितं मुदा नमामि विघ्नपम्।।४।।
❍ नराधि-पत्व-दायकं स्वरादि-लोक-दायकं
जरादि-रोग-वारकं निराकृता-सुर-व्रजम्।
कराम्बु-जैर्ध-रन्सृणीन् विकार-शून्य-मानसैर्
हृदा सदा विभावितं मुदा नमामि विघ्नपम्।।४।।

❑➧श्रमापनोदनक्षमं समाहितान्तरात्मना
समाधिभि: सदार्चितं क्षमानिधिं गणाधिपम्।
रमाधवादिपूजितं यमान्तकात्मसम्भवं
शमादिषड्गुणप्रदं नमामि तं विभूतये।।५।।
❍ श्रमा-पनोद-नक्षमं समाहितान्त-रात्मना
समाधिभि: सदार्चितं क्षमा-निधिं गणाधिपम्।
रमाधवादि-पूजितं यमान्त-कात्म-सम्भवं
शमादि-षड्गुण-प्रदं नमामि तं विभूतये।।५।।

❑➧गणाधिपस्य पञ्चकं नृणामभीष्टदायकं
प्रणामपूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदायुताः।
भवन्ति ते विदाम्पुर: प्रगीतवैभवा: जना-
श्चिरायुषोऽधिकश्रियः सुसूनवो न संशयः।।६।।
❍ गणाधि-पस्य पञ्चकं नृणाम-भीष्ट-दायकं
प्रणाम-पूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदा-युताः।
भवन्ति ते विदाम्पुर: प्रगीत-वैभवा: जनाश्
चिरायुषो-ऽधिक-श्रियः सुसूनवो न संशयः।।६।।

।।इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीगणाधिपस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

हिन्दी अर्थ

❑अर्थ➠जो विषयासक्त लोगों के लिये दुर्लभ, विरक्तजनों से पूजित, देवताओं और असुरों से वन्दित तथा जरा आदि मृत्यु के नाशक हैं, जिनके चरणारविन्दों की अर्चना करनेवाले अपनी वाणी द्वारा बृहस्पति और लक्ष्मी श्री विष्णु को भी जीत लेते हैं, उन दयारूपी जल के सागर गणाधिपति को मैं प्रणाम करता हूँ।।१।।

❑अर्थ➠जो गिरिराजनन्दिनी उमा के मुखारविन्द को प्रमोद प्रदान करने के लिये सूर्यरूप हैं। जिनका मुख गजराज के समान है; जो प्रणतजनों की पापराशि का नाश करने के लिये उद्यत रहते हैं। जिनकी कुक्षि (उदर) नागराज शेष से आवेष्टित है तथा जो अपने शरीर की कान्ति से बालसूर्य की किरणावली को पराजित कर देते हैं, उन गणेशजी की मैं सदा शरण लेता हूँ।।२।।

❑अर्थ➠शुक आदि मौनावलम्बी महात्मा जिनकी वन्दना करते हैं। जो गकार से वाच्य, अविनाशी तथा सकामभाव लेकर चरणों में प्रणत होनेवाले भक्त समूहों के लिये अभीष्ट वस्तु को देनेवाले हैं। चार भुजाएँ जिनकी शोभा बढ़ाती हैं; जो प्रफुल्ल कमल से पूजित होते हैं और आत्मतत्त्व के प्रकाशक हैं, उन गणाधिपति को मैं नमस्कार करता हूँ।।३।।

❑अर्थ➠जो नरेशत्व प्रदान करनेवाले, स्वर्गादि लोकों के दाता, जरा आदि रोगों का निवारण करनेवाले तथा असुर समुदायका संहार करनेवाले हैं, जो अपने करारविन्दों (हाथों) द्वारा अंकुश धारण करते हैं और निर्विकार चित्तवाले उपासक जिनका सदा ही मन के द्वारा ध्यान करते हैं, उन विघ्नपति को मैं सानन्द प्रणाम करता हूँ।।४।।

❑अर्थ➠जो सब प्रकार के श्रम या पीड़ा का निवारण करने में समर्थ हैं; एकाग्रचित्तवाले योगी के द्वारा सदा समाधि से पूजित हैं; क्षमा के सागर और गणों के अधिपति हैं। लक्ष्मीपति विष्णु आदि देवता जिनकी पूजा करते हैं। जो मृत्युंजय के आत्मज (पुत्र) हैं तथा शम आदि छः गुणों के दाता हैं, उन गणेश को मैं ऐश्वर्यप्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ।।५।।

❑अर्थ➠यह ‘गणाधिपंचकस्तोत्र’ मनुष्यों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाला है। जो लोग प्रेमपूर्वक प्रसन्नता के साथ इसका पाठ करते हैं, वे विद्वानों के समक्ष अपने वैभव के लिये प्रकाशित होते हैं तथा दीर्घायु, अधिक श्री-सम्पत्ति से सम्मान और सुन्दर पुत्रवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है।।६।।

❑अर्थ➠इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य विरचित श्रीगणाधिस्तोत्रम् सम्पूर्ण हुआ।