CHANAKYA SUTRA 1 TO 5

CHANAKYA SUTRA 1 TO 5

चाणक्य सूत्र

आचार्य चाणक्य और उनकी नीतियों से सारा संसार विदित है, किन्तु उनके द्वारा लिखे गये सूत्रों से अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं। आइये, पहले जान लें कि नीति और सूत्र में क्या अन्तर है?

उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला को नीति (Policy) कहते हैं। नीति, सोच-समझकर बनाये गये सिद्धान्तों की प्रणाली है, जो उचित निर्णय और सही परिणाम पाने में सहायता करती है। नीति में अभिप्राय का स्पष्ट उल्लेख होता है, यह अपने-आप में स्वतन्त्र होती है।

सूत्र, किसी बड़ी बात को अतिसंक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने का तरीक़ा है। इसका उपयोग व्याकरण, गणित, विज्ञान आदि में होता है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ धागा या रस्सी होता है। जिस प्रकार धागा वस्तुओं को आपस में जोड़कर एक विशिष्ट रूप प्रदान करता है, उसी प्रकार सूत्र भी विचारों को सम्यक रूप से जोड़ता है। स्वतन्त्र होते हुए भी अगले सूत्र से इसकी निरन्तरता बनी रहती है।

वायु पुराण के अनुसार
अल्पाक्षरं असंदिग्धं सारवत्‌ विश्वतोमुखम्‌।
अस्तोभं अनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।।
कम अक्षरोंवाला, सन्देहरहित, सारस्वरूप, निरन्तरता लिये हुए त्रुटिहीन (कथन) को सूत्रविद सूत्र कहते हैं।

सनातन धर्म में सूत्र एक विशेष प्रकार का साहित्यिक प्रकार है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

सूत्र छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित वाक्य होते हैं, जो आपस में भलीभाँति जुड़े होते हैं। इसलिये नीतियों को पढ़ते समय विषयान्तर हो सकता है, परन्तु सूत्रों में ऐसा नहीं होता।

सूत्रों में प्रायः पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया जाता है ताकि गूढ़-से-गूढ़ बात भी संक्षेप में किन्तु स्पष्टता से कही जा सके। प्राचीनकाल में सूत्र-साहित्य का महत्त्व इसलिये था कि अधिकांश ग्रन्थ कण्ठस्थ किये जाने के ध्येय से रचे जाते थे, अतः इनका संक्षिप्त होना विशेष उपयोगी था। चूँकि सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त होते थे, कभी-कभी इनका अर्थ समझना कठिन हो जाता था। इसके समाधान के रूप में अनेक सूत्र के भाष्य की प्रथा प्रचलित हुई। भाष्यकार सूत्रों की व्याख्या (Oratory) करते थे।

आचार्य चाणक्य द्वारा ५८५ सूत्रों की रचना की गयी है, जो चाणक्य-सूत्र के नाम से जाना जाता है। चाणक्य-सूत्र में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साथ ही जीवन के हर पहलू प्रकाश डाला गया है।

इस पोस्ट में उनके प्रारम्भ के ५ सूत्रों के बारे में जानेंगे

।।अथ चाणक्य सूत्र प्रारभ्यते।।

।। नमः शुक्र बृहस्पतिभ्याम्।।१।।
शुक्राचार्य और बृहस्पति को नमस्कार है।

पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्रणि पूर्वाचार्यैः
प्रस्थापितानि संहृत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम्।।२।।
पृथिवी की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए पुरातन आचार्यों ने जितने भी अर्थशास्त्र विषयक ग्रंथों का निर्माण किया, उन सभी का सार-संकलन कर ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की गयी है। चाणक्य की दृष्टि में ‘अर्थ’ का तात्पर्य भूमि से है।

।।सुखस्य मूलं धर्मः।।३।।
सुख का मूल धर्म है। मानव द्वारा उचित कर्त्तव्यों का पालन ही सुख का मूल है, जिसे धर्म कहते हैं।

संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति की सुख की धारणा भिन्न-भिन्न होती है। कोई व्यक्ति इस बात में सुख मानता है कि उसके पास धन हो, जिससे वह अपनी इच्छाएँ पूरी कर सके और सुखपूर्वक रह सके। किसी को लिखने-पढ़ने में सुख मिलता है। कोई अपनी सन्तान को अच्छा बनाने में ही सुख समझता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि वास्तविक सुख क्या है?

इस सम्बन्ध में लोगों की मान्यताएँ भी भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन चाणक्य-सूत्र कहता है कि मानवोचित कर्त्तव्यों का पालन करने से ही मनुष्य के धर्म का पालन होता है और यही धर्म-पालन सुख का मूल है।

।।धर्मस्य मूलमर्थः।।४।।
धर्म का मूल अर्थ है। धर्म अर्थात् नीतिपूर्वक मानवोचित कार्यों को करते हुए अर्थ की प्राप्ति करना। अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए राज्य-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण सहयोग होता है।

आचार्य चाणक्य ने अनेक स्थानों पर अर्थ (धन) की महत्ता को स्पष्ट किया है। उनका कहना है कि धन के बिना धर्म का पालन भी असम्भव होता है अर्थात् धन के बिना न तो मनुष्य किसी प्रकार की उन्नति कर सकता है और न किसी प्रकार के कल्याणकारी कार्य। नीति-वर्णन में उन्होंने निर्धन व्यक्ति को संसार में सबसे कमज़ोर बताया है। निर्धन व्यक्ति को किसी प्रकार का भी सुख प्राप्त नहीं होता और न ही वह अपने कर्त्तव्यों का पालन कर पाता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि धर्म कार्यों के लिए धन का संग्रह करें।

धन तो पापी व्यक्ति के पास भी हो सकता है, परन्तु उसके पास धन होने से न तो उसे कोई लाभ हो सकता है और न ही संसार का किसी प्रकार का कल्याण। जिस धन का प्रयोग धर्म की रक्षा और मानव-कल्याण के लिए होता है, वास्तव में वही धन धन है। बाक़ी सब संग्रह मात्र है।

।।अर्थस्य मूलं राज्यम्।।५।।
अर्थ का मूल राज्य है अर्थात् राज्य की सहायता अथवा व्यवस्था के बिना धन-संग्रह करना कठिन है। धन-संग्रह के लिए राज्य में स्थिरता और शान्ति स्थापित होना अतिआवश्यक होता है। जब तक राज्य में अशान्ति रहती है, तब तक राज्य सम्पन्न नहीं हो सकता।

जिन देशों अथवा राज्यों ने अपने प्रयत्नों द्वारा देश को विकसित और सम्पन्न बनाया है, उसमें वहाँ की सरकारों की प्रमुख भूमिका रही है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक राज्य अथवा सरकार व्यापारियों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती हैं, जिससे राज्य सम्पन्न होता है। आज के विकसित राष्ट्र इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने अपने व्यापारियों अथवा उद्योगपतियों को किस प्रकार प्रोत्साहन दिया अर्थात् यह बात स्पष्ट है कि किसी देश के लोगों का सम्पन्न होना उस देश की शासन-व्यवस्था पर निर्भर होता है।

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CHANAKYA SUTRA 6 TO 10