GANPATI ATHARVASHIRSHA MEANING
अथर्वशीर्ष की परम्परा में ‘गणपत्यथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्त्व है। यह भगवान् गणेश का वैदिक स्तवन है। प्रायः प्रत्येक मांगलिक कार्य में गणेश-पूजन के दरमियान प्रार्थना रूप में इसके पाठ की परम्परा है।
गणपति महामन्त्र ─
‘ॐ गं गणपतये नमः’
एवं गणेश गायत्री मन्त्र ─
‘एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।।’
का भी इसके अन्तर्गत माहात्म्यसहित समावेश है। इसका पाठ करनेवाला किसी भी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ─ इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है।
https://sugamgyaansangam.com के STOTRA-SANGRAH में गणपत्यथर्वशीर्ष संस्कृत मूलपाठ सहित हिन्दी में अर्थ पाठकों के लिये उपलब्ध है। किसी भी अथर्व शीर्ष के आरम्भ और अन्त में उस अथर्वशीर्ष का शान्तिपाठ करने से उसकी सम्यक् फल-प्राप्ति होती है।
ध्यान दें─ मूल श्लोक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पंचदेव अथर्वशीर्ष संग्रह पुस्तक (कोड 1800) से लिये गये हैं।
● शान्तिपाठ ●
❑➧ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाᳬंसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
❑अर्थ➠ हे देवगण! हम भगवान् का यजन (आराधन) करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें, नेत्रों से कल्याण (ही) देखें, सुदृढ़ अंगों एवं शरीर से भगवान् की स्तुति करते हुए हम लोग जो आयु आराध्यदेव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। सब ओर फैले हुए सुयशवाले इन्द्र हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखनेवाले पूषा हमारे लिये कल्याण का पोषण करें, अरिष्टों को मिटाने के लिये चक्र के सदृश शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिये कल्याण का पोषण करें तथा (बुद्धि के स्वामी) बृहस्पति भी हमारे लिये कल्याण की पुष्टि करें। हे परमात्मन्! हमारे त्रिविध ताप की शान्ति हो।
❀ गणपत्यथर्वशीर्ष ❀
❑➧ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव केवलं धर्तासि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।।१।।
❑अर्थ➠ गणपति को नमस्कार है। तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो। तुम्हीं केवल कर्ता हो। तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो। तुम्हीं केवल समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो।
❑➧ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।२।।
❑अर्थ➠ यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ।
❑➧अव त्वं माम्। अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धातारम्। अव अनूचानम्। अव शिष्यम्। अव पश्चात्तात्। अव पुरस्तात्। अवोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात् । अवाधस्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्।।३।।
❑अर्थ➠ तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर भाग की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतो भाव से मेरी रक्षा करो, सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो।
❑➧त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।४।।
❑अर्थ➠ तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो, तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो।
❑➧सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।५।।
❑अर्थ➠ यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुम्हीं में लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् (वाणी) हो।
❑➧त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।।६।।
❑अर्थ➠ तुम तीनों गुणों (सत्त्व-रज-तम) से परे हो। तुम तीनों कालों (भूत-भविष्य-वर्तमान) से परे हो। तुम तीनों देहों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम तीनों शक्तियों (दैवी-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति) से संयुक्त हो। योगीजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चन्द्रमा हो, तुम (सगुण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो।
❑➧गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः।अर्धेन्दुलसितम्। तारेण रुद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः सन्धानम्। संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः निचृद् गायत्री छन्दः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः।।७।।
❑अर्थ➠ ‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करे। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्रसे पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरूप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्व रूप है, ‘अकार’ मध्यम रूप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है। ‘बिन्दु’ उत्तर रूप है। ‘नाद’ सन्धान है। ‘संहिता’ सन्धि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं, निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता हैं। मन्त्र है─ ‘ॐ गं गणपतये नमः।
❑➧एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।।८।।
❑अर्थ➠ एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें।
❑➧एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्।।
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः।।९।।
❑अर्थ➠ गणपतिदेव एकदन्त और चतुर्बाहु (चार भुजावाले) हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करनेवाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे ‘विद्यमान पुरुषोत्तम’ सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए हैं, जो इनका इस प्रकार नित्य ध्यान करता है वह योगी, योगियों में श्रेष्ठ है।
❑➧नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमः।।१०।।
❑अर्थ➠ व्रात (समूह) पति को नमस्कार, गणपति को नमस्कार, प्रमथपति को नमस्कार, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार है।
❑➧एतदथर्वशीर्षं योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते। स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते। स सर्वतः सुखमेधते स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति। इदम् अथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति। सहस्रावर्तनाद् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।।११।।
❑अर्थ➠ इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका पाठ दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल इसका पाठ रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करनेवाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाला सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ─इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष उसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी एक हजार आवृत्ति (पाठ) करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा।
❑➧अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति। चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति। इत्यथर्वणवाक्यं। ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति।।१२।।
❑अर्थ➠ जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् (अध्यात्म विद्या विशिष्ट) हो जाता है। यह अथर्वण वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
❑➧यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति। स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति। यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।१३।।
❑अर्थ➠ जो दूर्वांकुरों (अंकुरित दुर्वा) द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा (चावल) के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान् होता है। जो सहस्र मोदकों द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त (घी युक्त) समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
❑➧अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति। महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महापापात् प्रमुच्यते। महादोषात प्रमुच्यते। स सर्वविद् भवति। स सर्वविद् भवति। य एवं वेद।।१४।।
❑अर्थ➠ जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। वह सर्वविद हो जाता है, जो यह जानता है।
❑➧।।इत्युपनिषत्।।
❑अर्थ➠ इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है।
शान्तिपाठ के लिये आरम्भ में देखें।