MANORATH SIDDHIPRAD GANESH STOTRA
मनोरथसिद्धिप्रदगणेशस्तोत्रम् भक्तों की मनोकामना सिद्ध करनेवाला अद्भुत स्तोत्र है। अनुष्टुप् छन्द पर आधारित इसमें १३ श्लोक हैं, जिसे आसानी से याद किया जा सकता है।
https://sugamgyaansangam.com के STOTRA SANGRAH में इसे लघु❍शब्दों की सहायता से बड़ी आसानी से बोला जा सकता है। प्रामाणिकता के तौर पर मूल❑➧श्लोक भी दिये गये हैं, जो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब गणेशस्तोत्र रत्नाकर पर आधारित है।
मनोरथसिद्धिप्रदगणेशस्तोत्रम्
❑➧ स्कन्द उवाच
नमस्ते योगरूपाय सम्प्रज्ञातशरीरिणे।
असम्प्रज्ञातमूर्ध्ने ते तयोर्योगमयाय च।।१।।
❍ नमस्ते योग-रूपाय
सम्प्रज्ञात-शरीरिणे।
असम्प्रज्ञात-मूर्ध्ने ते
तयोर्-योग-मयाय च।।१।।
❑➧ वामाङ्गे भ्रान्तिरूपा ते सिद्धिः सर्वप्रदा प्रभो।
भ्रान्तिधारकरूपा वै बुद्धिस्ते दक्षिणाङ्गके।।२।।
❍ वामाङ्गे भ्रान्ति-रूपा ते
सिद्धिः सर्वप्रदा प्रभो।
भ्रान्ति-धारक-रूपा वै
बुद्धिस्ते दक्षिणाङ्गके।।२।।
❑➧ मायासिद्धिस्तथा देवो मायिको बुद्धिसंज्ञितः।
तयोर्योगे गणेशान त्वं स्थितोऽसि नमोऽस्तु ते।।३।।
❍ माया-सिद्धिस्-तथा देवो
मायिको बुद्धि-संज्ञितः।
तयोर्-योगे गणेशान
त्वं स्थितोऽसि नमोऽस्तु ते।।३।।
❑➧ जगद्रूपो गकारश्च णकारो ब्रह्मवाचकः।
तयोर्योगे गणेशाय नाम तुभ्यं नमो नमः।।४।।
❍ जगद्-रूपो गकारश्च
णकारो ब्रह्म-वाचकः।
तयोर्-योगे गणेशाय
नाम तुभ्यं नमो नमः।।४।।
❑➧ चतुर्विधं जगत्सर्वं ब्रह्म तत्र तदात्मकम्।
हस्ताश्चत्वार एवं ते चतुर्भुज नमोऽस्तु ते।।५।।
❍ चतुर्विधं जगत्-सर्वं
ब्रह्म तत्र तदात्मकम्।
हस्ताश्-चत्वार एवं ते
चतुर्भुज नमोऽस्तु ते।।५।।
❑➧ स्वसंवेद्यं च यद्ब्रह्म तत्र खेलकरो भवान्।
तेन स्वानन्दवासी त्वं स्वानन्दपतये नमः।।६।।
❍ स्वसंवेद्यं च यद्ब्रह्म
तत्र खेल-करो भवान्।
तेन स्वानन्द-वासी त्वं
स्वानन्द-पतये नमः।।६।।
❑➧ द्वन्द्व चरसि भक्तानां तेषां हृदि समास्थितः।
चौरवत्तेन तेऽभूद् वै मूषको वाहनं प्रभो।।७।।
❍ द्वन्द्व चरसि भक्तानां
तेषां हृदि समास्थितः।
चौरवत्तेन तेऽभूद् वै
मूषको वाहनं प्रभो।।७।।
❑➧ जगति ब्रह्मणि स्थित्वा भोगान् भुङ्क्षे स्वयोगतः।
जगद्भिर्ब्रह्मभिस्तेन चेष्टितं ज्ञायते न च।।८।।
❍ जगति ब्रह्मणि स्थित्वा
भोगान् भुङ्क्षे स्वयोगतः।
जगद्-भिर्-ब्रह्म-भिस्तेन
चेष्टितं ज्ञायते न च।।८।।
❑➧ चौरवद्भोगकर्ता त्वं तेन ते वाहनं परम्।
मूषको मूषकारूढो हेरम्बाय नमो नमः।।९।।
❍ चौरवद्-भोगकर्ता त्वं
तेन ते वाहनं परम्।
मूषको मूषका-रूढो
हेरम्बाय नमो नमः।।९।।
❑➧ किं स्तौमि त्वां गणाधीश योगशान्तिधरं परम्।
वेदादयो ययुः शान्तिमतो देवं नमाम्यहम्।।१०।।
❍ किं स्तौमि त्वां गणाधीश
योग-शान्ति-धरं परम्।
वेदादयो ययुः शान्ति-
मतो देवं नमाम्यहम्।।१०।।
❑➧ इति स्तोत्रं समाकर्ण्य गणेशस्तमुवाच ह।
वरं वृणु महाभाग दास्यामि दुर्लभं ह्यपि।।११।।
❍ इति स्तोत्रं समा-कर्ण्य
गणेशस्-तमुवाच ह।
वरं वृणु महाभाग
दास्यामि दुर्लभं ह्यपि।।११।।
❑➧ त्वया कृतमिदं स्तोत्रं योगशान्तिप्रदं भवेत्।
मयि भक्तिकरं स्कन्द सर्वसिद्धिप्रदं तथा।।१२।।
❍ त्वया कृतमिदं स्तोत्रं
योग-शान्ति-प्रदं भवेत्।
मयि भक्तिकरं स्कन्द
सर्व-सिद्धि-प्रदं तथा।।१२।।
❑➧ यं यमिच्छसि तं तं वै दास्यामि स्तोत्रयन्त्रितः।
पठते शृण्वते नित्यं कार्तिकेय विशेषतः।।१३।।
❍ यं यमिच्छसि तं तं वै
दास्यामि स्तोत्र-यन्त्रितः।
पठते शृण्वते नित्यं
कार्तिकेय विशेषतः।।१३।।
इति श्रीमुद्गलपुराणे मनोरथसिद्धिप्रदगणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
हिन्दी में अर्थ
❑अर्थ➠ स्कन्द बोले─ हे गणेश्वर! सम्प्रज्ञात समाधि आपका शरीर तथा असम्प्रज्ञात समाधि आपका मस्तक है। आप दोनों के योगमय होने के कारण योग स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है।।१।।
❑अर्थ➠ प्रभो! आपके वामांग में भ्रान्तिरूपा सिद्धि विराजमान हैं, जो सब कुछ देनेवाली हैं तथा आपके दाहिने अंग में भ्रान्तिधारक रूपवाली बुद्धिदेवी स्थित हैं। भ्रान्ति अथवा माया सिद्धि है और उसे धारण करने वाले गणेश देव मायिक हैं। बुद्धि संज्ञा भी उन्हींकी है। हे गणेश्वर! आप सिद्धि और बुद्धि दोनों के योग में स्थित हैं; आपको बारम्बार नमस्कार है।।२-३।।
❑अर्थ➠ गकार जगत्स्वरूप है और णकार ब्रह्म का वाचक है। उन दोनों के योग में विद्यमान आप गणेश-देवता को बारम्बार
नमस्कार है।।४।।
❑अर्थ➠ जरायुज आदि भेद से चार प्रकार के जो जगत् हैं, वे सब ब्रह्म हैं। जगत् में ब्रह्म ही उसके रूप में भास रहा है, इस प्रकार चतुर्विध जगत् ही आपके चार हाथ हैं। हे चतुर्भुज! आपको नमस्कार है।।५।।
❑अर्थ➠ स्वसंवेद्य जो ब्रह्म है, उसमें आप खेलते या आनन्द लेते हैं; इसीलिये आप स्वानन्दवासी हैं। आप स्वानन्दपति को नमस्कार है।।६।।
❑अर्थ➠ हे प्रभो! आप भक्तों के हृदय में रहकर उनके सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को चोर की भाँति चरते या चुराते हैं। इसीलिये मूषक (चूहा, चुरानेवाला) आपका वाहन है।।७।।
❑अर्थ➠ आप जगत्-रूप ब्रह्म में स्थित रहकर भोगों को भोगते हैं, तथापि अपने योग में ही विराजते हैं; इसलिये ब्रह्मरूप जगत् आपकी चेष्टा को नहीं जान पाता।।८।।
❑अर्थ➠ आप चौर की भाँति भोगकर्ता हैं, इसलिये आपका उत्कृष्ट वाहन मूषक है। आप मूषक पर आरूढ़ हैं। आप हेरम्ब को बारम्बार नमस्कार है।।९।।
❑अर्थ➠ गणाधीश! आप योगशान्तिधारी उत्कृष्ट देवता हैं। मैं आपकी क्या स्तुति कर सकता हूँ! आपकी स्तुति करनेमें तो वेद आदि भी शान्ति (मौन) धारण कर लेते हैं, अतः मैं आप गणेश देवता को नमस्कार करता हूँ।।१०।।
❑अर्थ➠ यह स्तोत्र सुनकर गणेश जी स्कन्द से कहा─ हे महाभाग! वर माँगो। वह दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्हें दूँगा।।११।।
❑अर्थ➠ हे स्कन्द! तुम्हारे द्वारा किया गया यह स्तोत्र योगशान्तिदाता, मुझमें भक्ति उत्पन्न करनेवाला तथा सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाला हो।।१२।।
❑अर्थ➠ हे कार्तिकेय! तुम जो-जो चाहोगे, वह-वह वस्तु तुम्हारे स्तोत्र में बँधकर मैं निश्चय ही देता रहूँगा। विशेषतः उन्हें, जो प्रतिदिन इसका पाठ और श्रवण करते होंगे, मैं मनोवांछित वस्तु दूँगा।।१३।।
इस प्रकार श्री मुद्गल पुराण में मनोरथ सिद्धि प्रद- गणेश स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।