SHIV TANDAV KAISE BOLE

SHIV TANDAV KAISE BOLE

❀ शिवताण्डवस्तोत्रम् ❀

(❑➧मूलश्लोक ❍ लघुशब्द ❑अर्थ➠सहित)

❑➧जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।।१।।
❍ जटा-टवी-गलज्-जल-प्रवाह-पावि-तस्थले
गलेऽव-लम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्।
डमड्-डमड्-डमड्-डमन्-निनाद-वड्-डमर्वयं
चकार चण्ड-ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।।१।।
❑अर्थ➠ जिन्होंने जटारूपी अटवी (वन) से निकलती हुई गंगाजी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किये गये सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारणकर, डमरू के डम-डम शब्दों से मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया है, वे शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें।||१||

❑➧जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।।२।।
❍ जटा-कटाह-सम्भ्रम-भ्रमन्-निलिम्प निर्झरी-
विलोल-वीचि-वल्लरी-विराज-मान मूर्धनि।
धगद्-धगद्-धगज्-ज्वलल्-ललाट-पट्ट पावके
किशोर-चन्द्र-शेखरे रतिः प्रति-क्षणं मम।।२।।
❑अर्थ➠ जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगाजी की चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्-धक् जल रही है, शीश पर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव) में मेरा निरन्तर अनुराग हो।||२||

❑➧धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।।३।।
❍ धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-विलास-बन्धु बन्धुर-
स्फुरद्-दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मान मानसे।
कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरा-पदि
क्वचिद्-दिगम्बरे मनो विनोद-मेतु वस्तुनि।।३।।
❑अर्थ➠ गिरिराजकिशोरी (पार्वती) के विलासकालोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनन्दित हो रहा है, जिनकी निरन्तर कृपादृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण हो जाता है, ऐसे दिगम्बर तत्त्व में मेरा मन विनोद करे।||३||

❑➧जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो
विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि।।४।।
❍ जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्-फणा मणि-प्रभा-
कदम्ब-कुङ्कुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधू-मुखे।
मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्-त्वगुत्त-रीय-मेदुरे
मनो विनोद-मद्भुतं बिभर्तु भूत-भर्तरि।।४।।
❑अर्थ➠ जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुञ्ज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुख पर कुंकुमराग का अनुलेप कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र (चादर) धारण करने से स्निग्धवर्ण हुए भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे।||४||

❑➧सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक:
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः।।५।।
❍ सहस्र-लोचन-प्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर
प्रसून-धूलि-धोरणी-विधू-सराङ्घ्रि-पीठभूः।
भुजङ्ग-राज-मालया निबद्ध-जाट-जूटक:
श्रियै चिराय जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः।।५।।
❑अर्थ➠ जिनकी चरणपादुकाएँ इन्द्र आदि समस्त देवताओं के [प्रणाम करते समय] मस्तकवर्ती (सिर के ऊपरी) कुसुमों की धूलि से धूसरित हो रही हैं। नागराज (शेष) के हार से बँधी हुई जटावाले भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिये चिरस्थायिनी सम्पत्ति के साधक हों।||५||

❑➧ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमान शेखरं
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः।।६।।
❍ ललाट-चत्वर-ज्वलद्-धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा-
निपीत-पञ्च-सायकं नमन्-निलिम्प-नायकम्।
सुधा-मयूख-लेखया विराज-मान-शेखरं
महा-कपालि सम्पदे शिरो जटाल-मस्तु नः।।६।।
❑अर्थ➠ जिसने ललाट-वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों (ज्वाला) के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, चन्द्रमा की कला से सुशोभित मुकुटवाला वह उन्नत विशाल ललाटवाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्ति का साधक हो।||६||

❑➧करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्
धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।।७।।
❍ कराल-भाल-पट्टिका-धगद्-धगद्-धगज्-ज्वलद्-
धनञ्जया-हुती-कृत-प्रचण्ड-पञ्च-सायके।
धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्र-चित्र-पत्रक-
प्रकल्प-नैक-शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।।७।।
❑अर्थ➠ जिन्होंने अपने विकराल भालपट्ट पर धक-धक् जलती हई अग्नि में प्रचण्ड कामदेव की आहुति दे दी थी, गिरिराजकिशोरी के स्तनों पर पत्रभंगरचना करने के एकमात्र शिल्पकार भगवान् शिव में मेरी धारणा लगी रहे।||७||

❑➧नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनीतमःप्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः।।८।।
❍ नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्-
कुहू-निशीथिनी-तमः-प्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः।
निलिम्प-निर्झरी-धरस्-तनोतु कृत्ति-सिन्धुरः
कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगद्-धुरन्धरः।।८।।
❑अर्थ➠ जिनके कण्ठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समय फैलते हुए दुरूह अन्धकार के समान श्यामता अंकित है, जो गजचर्म लपेटे हुए है, संसारभार को धारण करनेवाले चन्द्रमा [के सम्पर्क] से मनोहर कान्तिवाले भगवान् शंकर मेरी सम्पत्ति का विस्तार करें।||८||

❑➧प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे।।९।।
❍ प्रफुल्ल-नील-पङ्कज-प्रपञ्च-कालिम-प्रभा-
वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचि-प्रबद्ध-कन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छि-दान्ध-कच्छिदं तमन्त-कच्छिदं भजे।।९।।
❑अर्थ➠ जिनका कण्ठदेश खिले हुए नील कमलसमूह की श्याम प्रभा का अनुकरण करनेवाली हरिणी-सी छविवाले चिह्न से सुशोभित है, जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्ष-यज्ञ, गजासुर, अन्धकासुर और यमराज का भी उच्छेदन करनेवाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ।||९||

❑➧अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।।१०।।
❍ अखर्व-सर्व-मङ्गला-कला-कदम्ब मञ्जरी-
रस-प्रवाह-माधुरी-विजृम्भणा-मधु-व्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्त-कान्ध-कान्तकं तमन्त-कान्तकं भजे।।१०।।
❑अर्थ➠ जो अभिमानरहित पार्वती की कलारूप कदम्बमंजरी के मकरन्दस्रोत की बढ़ती हुई माधुरी के पान करनेवाले मधुप है तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्ष-यज्ञ, गजासुर, अन्धकासुर और यमराज का भी अन्त करनेवाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ।||१०||
 
❑➧जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः।।११।।
❍ जयत्-वदभ्र-विभ्रम-भ्रमद्-भुजङ्ग मश्वस-
द्विनिर्गमत्-क्रम-स्फुरत्-कराल-भाल-हव्य-वाट्
धिमिद्-धिमिद्-धिमिद्-ध्वनन्-मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल-
ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित-प्रचण्ड-ताण्डवः शिवः।।११।।
❑अर्थ➠ जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट की भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गम्भीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान् शंकर की जय हो!||११||

❑➧दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्
वरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम्।।१२।।
❍ दृषद्-विचित्र-तल्पयोर्-भुजङ्ग-मौक्ति-कस्रजोर्-
गरिष्ठ-रत्न-लोष्ठयोः सुहृद्-विपक्ष-पक्ष-योः।
तृणारविन्द-चक्षुषोः प्रजा-मही-महेन्द्रयोः
सम-प्रवृत्ति-कः कदा सदा-शिवं भजाम्यहम्।।१२।।
❑अर्थ➠ पत्थर और सुन्दर बिछौनों में, सर्प और मोतियों की माला में, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के ढेले में, मित्र या शत्रुपक्ष में, तृण या कमललोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के सम्राट में समान भाव रखता हुआ, मैं कब शिवजी को भजूँगा!||१२||

❑➧कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्।।१३।।
❍ कदा निलिम्प-निर्झरी-निकुञ्ज-कोटरे वसन्
विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मञ्जलिं वहन्।
विलोल-लोल-लोचनो ललाम-भाल-लग्नकः
शिवेति मन्त्र मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्।।१३।।
❑अर्थ➠ सुन्दर ललाटवाले भगवान चन्द्रशेखर में दत्तचित्त होकर, अपने कुविचारों को त्यागकर गंगाजी तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ, सिर पर हाथ जोड़कर डबडबायी विह्वल नेत्रों से शिवमन्त्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा।||१३||
 
❑➧इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।।१४।।
❍ इमं हि नित्य-मेव-मुक्त-मुत्त-मोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन् ब्रुवन्-नरो विशुद्धि-मेति सन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्ति-माशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।।१४।।
❑अर्थ➠ जो मनुष्य इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु श्रीशंकरजी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्धगति को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि शिवजी का भली-भाँति चिन्तन प्राणिवर्ग के मोह का नाश करनेवाला है।||३||

❑➧पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं
सदैवसुमुखिं प्रददाति शम्भुः।।१५।।
❍ पूजा-वसान-समये दश-वक्त्र-गीतं
यः शम्भु-पूजन-परं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथ-गजेन्द्र-तुरङ्ग-युक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः।।१५।।
❑अर्थ➠ सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण द्वारा गाये हुए इस शम्भुपूजन सम्बन्धी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहनेवाली अनुकूल सम्पत्ति प्रदान करते हैं।||१५||

इति श्री रावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

निम्नलिखित दो श्लोक क्षेपक हैं (अन्य प्रकाशनों एवं अनेक वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं), जो क्रमशः १४ वें और १५ वें क्रमांक पर आते हैं। पाठकों की सुविधा के लिये दिये जा रहे हैं।

❑➧निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहर्निशं
परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः॥१४॥
❍ निलिम्प नाथ-नागरी कदम्ब मौल-मल्लिका-
निगुम्फ-निर्भक्षरन्म धूष्णिका-मनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनी-महर्निशं
परिश्रय परं पदं तदङ्ग-जत्विषां चयः॥१४॥
❑अर्थ➠ देवांगनाओं के शीश में गुँथे पुष्पों की मालाओं से प्रवाहित सुगन्धमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुन्दरता परमानन्दयुक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहे।||१४||

❑➧प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥१५॥
❍ प्रचण्ड वाडवा-नल प्रभा-शुभ-प्रचारणी
महाष्ट-सिद्धि-कामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाह-कालिक-ध्वनिः
शिवेति मन्त्र-भूषगो जगज्-जयाय जायताम्॥१५॥
❑अर्थ➠ प्रचण्ड बड़वानल (समुद्र की अन्दर की अग्नि) की भाँति पाप कर्मों को भस्म करनेवाली कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्तिस्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियाँ तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परम श्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित ‘मंगलध्वनि’ सांसारिक दुःखों का नाश करके विजयी हों अर्थात् सांसारिक दुःखों का नाश करें।||१५||