SHREE GANESH STAVRAJ STOTRA

SHREE GANESH STAVRAJ STOTRA

श्री गणेश स्तवराज स्तोत्र के मूल❑➧श्लोक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किताब गणेशस्तोत्ररत्नाकर पर आधारित है।
https://sugamgyaansangam.com के इस पोस्ट में यह लघु❍शब्द एवं हिन्दी ❑अर्थ➠ सहित प्रस्तुत है।

 

❑➧श्रीभगवानुवाच
गणेशस्य स्तवं वक्ष्ये कलौ झटिति सिद्धिदम्।
न न्यासो न च संस्कारो न होमो न च तर्पणम्।।
न मार्जनं च पञ्चाशत्सहस्रजपमात्रतः।
सिद्धयत्यर्चनतः पञ्चशतब्राह्मणभोजनात्।।
❍ गणेशस्य स्तवं वक्ष्ये कलौ झटिति सिद्धिदम्।
न न्यासो न च संस्कारो न होमो न च तर्पणम्।।
न मार्जनं च पञ्चा-शत्-सहस्र-जप-मात्रतः।
सिद्ध्य-त्यर्चनतः पञ्च-शत-ब्राह्मण-भोजनात्।।
❑अर्थ➠श्रीभगवान् बोले⼀ अब मैं कलियुग में तत्क्षण ही सिद्धि देनेवाले भगवान् गणेश के स्तवन को बताऊँगा। इसके लिये न कोई न्यास, न कोई संस्कार, न हवन, न तर्पण और न मार्जन की आवश्यकता है। मात्र गणेश जी की पूजा और इस स्तव के पचास हज़ार जप तथा पाँच सौ ब्राह्मणों को भोजन कराने से यह सिद्ध हो जाता है।

विनियोगः
❑➧अस्य श्री गणेश स्तवराज मंत्रस्य भगवान सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री महागणपति देवता, श्री महागणपति प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
❍ अस्य श्री गणेश स्तव-राज मंत्रस्य भगवान सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री महा-गणपति देवता, श्री महागणपति प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
❑अर्थ➠इस श्री गणेश स्तवराज मन्त्र भगवान सदाशिव ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा श्रीमहागणपति देवता हैं। श्रीमहागणपति की प्रसन्नता के लिये जप में इसका विनियोग किया जाता है।

❑➧विनायकैकभावनासमर्चनासमर्पितं
प्रमोदकैः प्रमोदकैः प्रमोदमोदमोदकम्।
यदर्पितं सदर्पितं नवान्यधान्यनिर्मितं
न कण्डितं न खण्डितं न खण्डमण्डनं कृतम्।।१।।
❍ विनाय-कैक-भावना-समर्चना-समर्पितं
प्रमोदकैः प्रमोदकैः प्रमोद-मोद-मोदकम्।
यदर्पितं सदर्पितं नवान्य-धान्य-निर्मितं
न कण्डितं न खण्डितं न खण्ड-मण्डनं कृतम्।।१।।
❑अर्थ➠श्री गणेश भगवान् के सगुण साकार रूप की अनन्य भाव से उपासना करनेवाले भक्तगण, अखण्ड एवं अक्षत नवजात धान्यादिकों के द्वारा अत्यन्त आनन्द तथा उल्लास के साथ जिन आनन्ददाता प्रभु की मोदकमयी प्रतिमा का निर्माण करते हैं; मैं उन सगुण साकार प्रतिमा रूप गणेश को नमस्कार करता हूँ।।१।।

❑➧सजातिकृद्विजातिकृत्स्वनिष्ठभेदवर्जितं
निरञ्जनं च निर्गुणं निराकृतिं ह्यनिष्क्रियम्।
सदात्मकं चिदात्मकं सुखात्मकं परं पदं
भजामि तं गजाननं स्वमाययात्तविग्रहम्।।२।।
❍ सजाति-कृद्-विजाति-कृत्-स्वनिष्ठ-भेद-वर्जितं
निरञ्जनं च निर्गुणं निराकृतिं ह्य-निष्क्रियम्।
सदात्मकं चिदात्मकं सुखात्मकं परं पदं
भजामि तं गजाननं स्व-माययात्त-विग्रहम्।।२।।
❑अर्थ➠जो सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेदों से रहित हैं, जो निरंजन, निर्गुण, निराकार तथा अनिष्क्रिय हैं, जो सत्-स्वरूप, चित्-स्वरूप तथा आनन्द-स्वरूप पूर्ण ब्रह्म हैं और जो अपनी माया के द्वारा विग्रह धारण करनेवाले हैं, उन गजानन को मैं नमस्कार करता हूँ।।२।।

❑➧गणाधिप त्वमष्टमूर्तिरीशसुनूरीश्वर
स्त्वमम्बरं च शम्बरं धनञ्जयः प्रभञ्जनः।
त्वमेव दीक्षितः क्षितिर्निशाकरः प्रभाकर श्चराचरप्रचारहेतुरन्तरायशान्तिकृत्।।३।।
❍ गणाधिप त्वमष्ट-मूर्ति-रीश-सुनूरीश्वरस्
त्वमम्बरं च शम्बरं धनञ्जयः प्रभञ्जनः।
त्वमेव दीक्षितः क्षितिर्-निशाकरः प्रभाकरश्
चराचर-प्रचार-हेतु-रन्त-राय-शान्ति-कृत्।।३।।
❑अर्थ➠हे गणपति! आप स्वयं अष्टमूर्ति हैं, भगवान् शिव जी के पुत्र हैं और ईश्वर हैं। आप आकाश हैं, आप जल हैं, आप अग्नि हैं और आप ही वायु हैं। आप ही यजमान स्वरूप हैं। आप ही पृथिवी, चन्द्रमा तथा सूर्यरूप हैं। आप ही जड़ और चेतन के संचार के कारण स्वरूप हैं एवं संसार में सभी विघ्नों की शान्ति करनेवाले हैं।।३।।

❑➧अनेकदं तमालनीलमेकदन्तसुन्दरं
गजाननं नमोऽगजाननामृताब्धिचन्दिरम्।
समस्तवेदवादसत्कलाकलापमन्दिरं महान्तरायकृत्तमोऽर्कमाश्रितोन्दुरुं परम्।।४।।
❍ अनेकदं तमाल-नील-मेकदन्त-सुन्दरं
गजाननं नमोऽ-गजानना-मृताब्धि-चन्दिरम्।
समस्त-वेद-वाद-सत्कला-कलाप-मन्दिरं
महान्त-राय-कृत्त-मोऽर्क-माश्रितोन्-दुरुं परम्।।४।।
❑अर्थ➠जो भक्तों को सब कुछ देते हैं, तमाल के समान नीलवर्णवाले हैं, एक सुन्दर दन्तवाले हैं, हाथी के समान मुखवाले हैं, जो भगवती पार्वती के मुखरूपी अमृत सागर के लिये चन्द्रमा के समान हैं, जो समस्त वेद-विद्याओं एवं सभी सत्कलाओं के निधान हैं तथा जो बड़े-बड़े विघ्न करनेवाले अन्धकार के लिये सूर्य के समान हैं और श्रेष्ठ मूषक पर आसीन हैं, उन श्रीगणेश को मैं नमस्कार करता हूँ।।४।।

❑➧सरत्नहेमघण्टिकानिनादनूपुरस्वनर् मदङ्गतालनादभेदसाधनानुरूपतः।
धिमिद्धिमितथोङ्गथोङ्गथैयिथैयिशब्दतो
विनायकः शशाङ्कशेखरः प्रहृष्य नृत्यति।।५।।
❍ सरत्न-हेम-घण्टिका-निनाद-नूपुर-स्वनैर्
मृदङ्ग-ताल-नाद-भेद-साधनानु-रूपतः।
धिमिद्-धिमित-थोङ्ग-थोङ्ग-थैयि-थैयि-शब्दतो
विनायकः शशाङ्क शेखरः प्रहृष्य नृत्यति।।५।।
❑अर्थ➠रत्नजटित सुवर्णमय नुपूरों में लगी हुई घण्टियों के शब्दों में तथा मृदंग की ताल-ध्वनि के भेद साधनादि के अनुरूप धीमि-धीमि, थोंग थोंग, थैयि-थैयि आदि शब्दों के माध्यम से शशांक शेखर भगवान् विनायक हर्षित होकर नृत्य करते हैं।।५।।

❑➧सदा नमामि नायकैकनायकं विनायक
कलाकलापकल्पनानिदानमादिपूरुषम्।
गणेश्वरं गुणेश्वरं महेश्वरात्मसम्भवं
स्वपादपद्मसेविनामपारवैभवप्रदम्।।६।।
❍ सदा नमामि नायकैक-नायकं विनायक
कला-कलाप-कल्पना-निदान-मादि-पूरुषम्।
गणेश्वरं गुणेश्वरं महेश्वरात्म-सम्भवं
स्वपाद-पद्म-सेविना-मपार-वैभव-प्रदम्।।६।।
❑अर्थ➠नायक के भी एकमात्र नायक, सम्पूर्ण कलाओं की कल्पना के आदिकारण, आदिपुरुष, गणों के ईश्वर, सभी गुणों के स्वामी, भगवान् शिव के पुत्र और अपने चरण कमल की सेवा करनेवालों को अपार वैभव प्रदान करनेवाले श्री विनायक को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।।६।।

❑➧भजे प्रचण्डतुन्दिलं सदन्दशूकभूषणं
सनन्दनादिवन्दितं समस्तसिद्धसेवितम्
सुरासुरौकयोः सदा जयाप्रदा भयप्रदं
समस्तविघ्नघातिनं स्वभक्तपक्षपातिनम्।।७।।
❍ भजे प्रचण्ड-तुन्दिलं सदन्द-शूक-भूषणं
सनन्द-नादि-वन्दितं समस्त-सिद्ध-सेवितम्
सुरा-सुरौ-कयोः सदा जया-प्रदा भय-प्रदं
समस्त-विघ्न-घातिनं स्व-भक्त-पक्ष-पातिनम्।।७।।
❑अर्थ➠विशाल उदरवाले, दन्दशूक (सर्पसदृश विषैले जन्तु) को आभूषण के रूप में धारण करनेवाले, सनन्दन आदि मुनियों से वन्दित, समस्त सिद्धों के द्वारा सेवित, देवताओं को जय प्रदान करनेवाले तथा असुरों का भय देनेवाले, सभी विघ्नों का नाश करनेवाले और अपने भक्तों का पक्ष लेनेवाले गणेश का मैं भजन करता हूँ।।७।।

❑➧कराम्बुजातकङ्कणः पदाब्जकिङ्किणीगणो
गणेश्वरो गुणार्णवः फणीश्वराङ्गभूषणः।
जगत्त्रयान्तरायशान्तिकारकोऽस्तु तारको
भवार्णवस्थघोरदुर्गहा चिदेकविग्रहः।।८।।
❍ कराम्बु-जात-कङ्कणः पदाब्ज-किङ्किणी-गणो
गणेश्वरो गुणार्णवः फणीश्वराङ्ग-भूषणः।
जगत्-त्रयान्त-राय-शान्ति-कारको-ऽस्तु तारको
भवार्ण-वस्थ-घोर-दुर्गहा चिदेक-विग्रहः।।८।।
❑अर्थ➠करकमल में कंकण धारण करनेवाले, चरणकमल में किंकिणियों से सुशोभित होनेवाले, गणों के स्वामी, गुणों के सागर, नागराज को अंगभूषण के रूप में धारण करनेवाले, तीनों लोकों के विघ्नों की शान्ति करनेवाले, भवसागर में विद्यमान घोर कष्टों का निवारण करनेवाले तथा एकमात्र चिन्मय विग्रहवाले श्रीगणेश सभी के उद्धारक हों।।८।।

❑➧यो भक्तिप्रवणश्चराचरगुरोः स्तोत्रं गणेशाष्टकं
शुद्धः संयतचेतसा यदि पठेन्नित्यं त्रिसन्ध्यं पुमान्।
तस्य श्रीरतुला स्वसिद्धि संहिता श्री शारदा सर्वदा
स्यातां तत्परिचारके किल तदा काः कामनानां कथा।।९।।
❍ यो भक्ति-प्रवणश्-चराचर-
गुरोः स्तोत्रं गणेशाष्टकं
शुद्धः संयत-चेतसा यदि
पठेन्-नित्यं त्रिसन्ध्यं पुमान्।
तस्य श्रीरतुला स्व-सिद्धि
संहिता श्री शारदा सर्वदा
स्यातां तत्-परिचारके किल
तदा काः कामनानां कथा।।९।।
❑अर्थ➠जो मनुष्य भक्तियुक्त तथा पवित्र होकर चराचर के गुरु (श्रीगणेशजी) के इस गणेशाष्टक स्तोत्र का संयत चित्त से तीनों सन्ध्या कालों में नित्य पाठ करता है, अनुपमा लक्ष्मी जी तथा अपनी सिद्धियों सहित सरस्वतीजी सदा उसकी परिचारिका बनी रहती हैं, तब उसकी कामनाओं की बात ही क्या!।।९।।

।।इति श्रीरुद्रयामले श्रीगणेश स्तवराजः सम्पूर्णः।।
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल में श्रीगणेशस्तवराज सम्पूर्ण हुआ।

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